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लज्जा

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2125
आईएसबीएन :81-7055-777-1

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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...


अन्ततः सहकारी अध्यापक के रूप में ही सुधामय दत्त ने सेवानिवृत्ति ली। उन्हीं के साथ काम करने वाले माधव चन्द्र पाल ने सुधामय को फेयरबेल की माला पहनाते हुए उनके कानों में फुसफुसाकर कहा, 'मुसलमानों के देश में अपने लिए बहुत ज्यादा किसी चीज की आशा करना ठीक नहीं है। हमें जितना मिल रहा है, वही बहुत है।' इतना कहकर वे ठहाका मार कर हँसने लगे। वे भी तो मजे में सहकारी अध्यापक की नौकरी किये जा रहे हैं। एक-दो बार पदोन्नति के लिए उनका नाम भी दिया गया था। अन्य नामों के लिए भले ही कोई आपत्ति न उठी हो, इस नाम के लिए जरूर उठी थी। इसके अलावा माधवचन्द्र की एक और गलती थी। वे सोवियत संघ घूम कर आये थे। बाद में सुधामय ने सोचा था, माधवचन्द्र ने गलत नहीं कहा था। पुलिस प्रशासन या सेना के उच्च पदों पर हिन्दुओं की भर्ती या पदोन्नति के मामले में यों तो बांग्ला देश के कानून में कोई मनाही नहीं थी लेकिन पाया गया कि मंत्रालयों के किसी सचिव या अतिरिक्त सचिव के पद पर कोई हिन्दू सम्प्रदाय का व्यक्ति नहीं था। तीन संयुक्त सचिव और कुछ उप- सचिव हैं। जिनकी संख्या उँगलियों पर गिनी जा सकती है। सुधामय को यकीन है कि वे इने-गिने संयुक्त सचिव और उप-सचिव अवश्य ही पदोन्नति की आशा नहीं करते होंगे। सारे देश में मात्र छह हिन्दू डी. सी. हैं। हाई कोर्ट में मात्र एक हिन्दू जज है। पुलिस के छोटे पदों पर शायद उनकी नियुक्ति होती है लेकिन एस. पी. के पद पर कितने हिन्दू हैं? सुधामय ने सोचा, आज वे 'सुधामय दत्त' होने के कारण ही एसोसियेट प्रोफेसर नहीं बन पाये। अगर वे मुहम्मद अली या सलीमुल्लाह चौधरी होते तो इस तरह की बाधा नहीं आती। बिजनेस करने पर भी यदि मुसलमान पार्टनर न हो तो हमेशा लाइसेंस नहीं मिलता। इसके अलावा सरकार द्वारा संचालित बैंक, विशेषकर वाणिज्यिक संस्थाओं से तो बिलकुल ऋण नहीं दिया जाता है।

सुधामय दत्त ने पुनः तांतीबाजार में रहने योग्य वातावरण बना लिया। जन्म स्थान छोड़कर भी उनका देश के प्रति मोह खत्म नहीं हुआ। वे कहते, "सिर्फ मयमनसिंह ही मेरा देश नहीं है, बल्कि सारा बांग्लादेश ही मेरा देश है।'

किरणमयी लम्बी साँस छोड़कर कहती थी, 'तालाब में मछली पालूँगी, सब्जी लगाऊँगी, बच्चे अपने पेड़ का फल खायेंगे।' और, अब तो हर महीने किराया देकर कुछ नहीं बचता। गहरी रात में किरणमयी प्रायः कहती, 'घर बेचकर और रिटायर्ड होकर तो अच्छा-खासा रुपया मिला। चलो, अब हम यहाँ से चले जाते हैं। वहाँ पर तो अपने बहुत रिश्तेदार हैं।'

पर सुधाकर कहते, 'रिश्तेदार तुम्हें एक दिन भी खिलायेंगे, सोचती हो? सोचती हो कि तुम उनके घर पर ठहरोगी। देख लेना, वे मुँह फेर लेंगे। फिर कहेंगे, कहाँ ठहरी हैं, चाय-नाश्ता करेंगी?'

‘अपना ही रुपया-पैसा होगा तो दूसरों के आगे हाथ क्यों फैलाऊँगी?'

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