जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
|
360 पाठक हैं |
प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
भारत के उग्र साम्प्रदायिक दलों की कृपा से सत्तारूढ़ बी. एन. पी. सरकार 'गुलाम आजम मुकदमा प्रकरण' को ध्यान में रखकर आंदोलन के रुख को साम्प्रदायिकता की दिशा में मोड़ देने में सफल हुई है। इस मामले में जमात शिविर-फ्रीडम पार्टी और दूसरे साम्प्रदायिक दलों की तत्परता ने सरकार को मदद पहुँचाई है। जमाते-इस्लामी देशवासियों का ध्यान दूसरी तरफ मोड़कर 'गुलाम आजम मुकदमे के आन्दोलन' के दबाव से निश्चिन्त हुई है। सांस्कृतिक संगठनों के साझे जुलूस में नारे लगाये गये-'साम्प्रदायिक दंगाबाजों को रोकेगा अब बांग्लादेश।' आहा बांग्लादेश । सुरंजन सिगरेट फूंकते-फूंकते बोला, 'साला सुअर का बच्चा, बांग्लादेश।' यह गाली उसने बार-बार दुहरायी। उसे काफी आनन्द आ रहा था। अचानक हँस पड़ा, उसकी वह हँसी खुद को ही बड़ी क्रूर लगी।
मादल, किरणमयी के बदन से सटकर बैठी है। कहती है, 'मौसी जी, हम लोग मीरपुर चले आ रहे हैं। वहाँ गुंडे जा नहीं पायेंगे।'
'क्यों नहीं जा पायेंगे?' 'मीरपुर तो बहुत दूर है, न।'
मादल समझती है कि गुंडे सिर्फ टिकाटुली में ही रहते हैं। मीरपुर दूर है इसलिए वे वहाँ नहीं जाते। किरणमयी सोचती है जो लोग हिन्दुओं का घर लूटते हैं, तोड़ते हैं, जलाते हैं, मायाओं को उठा ले जाते हैं, क्या वे सिर्फ गुंडे हैं? गुंडे तो हिन्दू-मुसलमान नहीं मानते, सभी घरों पर हमला करते हैं। जो लोग धर्म देखकर लूट करते हैं, अपहरण करते हैं, उन्हें गुंडा कहने से 'गुंडा' नाम का अपमान ही होगा।
सुधामय सोये हुए हैं। सोये रहने के अलावा तो उनको कोई काम नहीं है। अचल, व्यर्थ जीवन लेकर जिन्दा रहने की क्या जरूरत है। खामख्वाह किरणमयी को कष्ट दे रहे हैं। सब कुछ सहने वाली धरती की तरह हैं किरणमयी, जरा भी क्लांति नहीं है उनमें। सारी रात आँसू बहाती हैं, क्या उनकी इच्छा होती है सुबह उठकर चूल्हा जलाने की! फिर भी जलाना पड़ता है। पेट की भूख तो सबको पछाड़ कर आगे आ जाती है। सुरंजन ने तो नहाना-खाना छोड़ ही दिया है, किरणमयी भी काफी हद तक उसी तरह हो गयी है, सुधामय की भी खाने में रुचि नहीं है। माया तो आज भी नहीं लौटी! क्या माया अब नहीं लौटेगी? काश, अपने जीवन के बदले माया को वापस ला पाते! यदि चौराहे पर खड़ा होकर कहा जा सकता, ‘माया को वापस चाहता हूँ। माया को वापस माँगने का मुझे अधिकार है।' अधिकार? यह शब्द अब सुधामय को अर्थहीन लगता है। छियालिस में तब उसकी उम्र ही कितनी रही होगी, कालीबाड़ी की एक दुकान में 'संदेश' खाकर उन्होंने कहा, 'एक गिलास पानी दोगे, भाई!' शहर में उस वक्त हिन्दू-मुसलमान के बीच असंतोष घना हो उठा था। मिठाई की दुकान में बैठे कुछ मुसलमानों ने उन्हें तीखी निगाह से देखा था। सुधामय 'जल' नहीं माँग सकते थे। डर से? शायद डर से ही, वरना और क्या!
|