जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
किरणमयी जड़ पदार्थ की तरह धप्प से बैठ गयी। और बैठी ही रही। न तो उनके अचेतन हाथ-पैर की तरफ अपना हाथ बढ़ाती है, न एक बार अपने पति की ओर देखती ही है। दूसरे कमरे से हल्ला-गुल्ला सुनाई देता है। सुधामय ने पूछा, 'सुरंजन इतना चिल्ला क्यों रहा है? वह हैदर के पास नहीं गया? मैं तो खुद ही जा सकता था। यह बीमारी मुझे क्यों हुई। अगर मैं स्वस्थ रहता तो माया को कोई छू पाता? पीट कर सबकी लाश गिरा देता! स्वस्थ रहने पर जैसे भी होता, माया को ढूँढ़ लाता' सुधामय अकेले ही उठना चाहते हैं, उठते हुए फिर चित्त होकर बिस्तर पर गिर जाते हैं। किरणमयी उन्हें पकड़कर नहीं उठाती है बल्कि स्थिर बंद दरवाजे की ओर देखती रहती है। कब आहट होगी, कब माया लौटेगी।
‘एक बार बुलाओ तो अपने सुयोग्य बेटे को। ‘स्काउंड्रेल' कहीं का! बहन नहीं है और वह घर पर शराब का अड्डा जमाए, हो-हल्ला कर रहा है। छिः छिः।'
किरणमयी न तो सुरंजन को बुलाने जाती है, न सुधामय को शांत कराती है। वह स्थिर दरवाजे की तरफ देखती रहती है। घर के कोने में राधा-कृष्ण का चित्र रखा है। अब वह और पति या पुत्र का निषेध मानकर नास्तिकता पर विचार करने को राजी नहीं है। इस क्षण कोई मनुष्य सहायक नहीं है। काश! भगवान ही सहाय हो जायँ!
सुधामय खड़ा होना चाहते हैं। एक बार जोनाथन स्विफ्ट की तरह कहना चाहते हैं- 'परस्पर घृणा करन के धर्म हमारे कई हैं, लेकिन एक-दूसरे को प्यार करने का धर्म पर्याप्त नहीं। मनप्य का इतिहास धार्मिक कलह, युद्ध, जेहाद से कलंकित है।' छियालिस में सुधामय नारा लगाते थे- 'हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई।' ऐसा नारा आज भी लगाया जाता है। इस नारे को इतने बरसों से क्यों दोहराना पड़ रहा है? इस उपमहादेश में इस नार का और कितनी शताब्दियों तक दोहराना पड़ेगा! अब भी आस्वान की आवश्यकता खत्म नहीं हुई है! क्या इस नारे से विवेकहीन आदमी जागता भी है? आदमी यदि भीतर से असाम्प्रदायिक न हो तो इस नारे से चाहे और कुछ भले ही हो, साम्प्रदायिकता खत्म नहीं होगी।
सुरंजन हैदर के घर गया। वह नहीं है। 'भोला' गया हुआ है। हिन्दुओं की दुर्दशा देखने। अवश्य ही वापस आकर दुःख जताएगा। दस जगहों पर भाषण देगा। लोग वाहवाही देंगे। कहेंगे, 'अवामी लीग के कार्यकर्ता बड़े हमदर्द हैं, बड़े ही असाम्प्रदायिक।' फलस्वरूप हिन्दुओं का वोट और जायेगा कहाँ! अपनी पड़ोसिन 'माया' के प्रति उसमें माया नहीं है, वह गया है दूर की मायाओं को देखने। ढक्कन खोलकर बोतल से 'गट-गट कुछ गले में उतार लेता है सुरंजन। अन्य लोगों को पीने की कुछ खास इच्छा नहीं है। फिर भी पानी मिलाकर थोड़ा-थोड़ा सभी ले लेते हैं। भूखे पेट में शराब पड़ने से उबकाई-सी आती है।
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