जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
'चलो आज रात में 'तारा मस्जिद' जला देते हैं।' देवव्रत विस्मित नजरों से एक बार सुरंजन को, एक बार नयन को देखता है।
'हम लोग दो करोड़ हिन्दू हैं, चाहें तो रायतुल मुकर्रम को तो जला ही सकते '
'तुमने तो कभी अपने को हिन्दू नहीं कहा। आज अचानक यह क्यों कह रहे हो?'
'मनुष्य' कहता था न, 'मानवतावादी' कहता था। मुझे मुसलमानों ने मनुष्य नहीं रहने दिया। हिन्दू बना दिया।'
'तुम बहुत बदले जा रहे हो, सुरंजन।'
'इसमें मेरा कोई दोष नहीं।'
'मस्जिद तोड़कर हमें क्या फायदा होगा? क्या हमें मंदिर वापस मिल जायेगा?' देवव्रत कुर्सी की टूटी हथेली पर नाखून घिसते हुए बोला।
'न मिले, फिर भी हम लोग भी तोड़ सकते हैं। हमारा भी गुस्सा है, इस बात को एक बार जाहिर नहीं कर देना चाहिए? बाबरी मस्जिद साढ़े चार सौ वर्ष पुरानी मस्जिद थी। चैतन्यदेव का घर भी तो पाँच सौ वर्ष पुराना था। चार-पाँच सौ वर्ष पुराने स्मारकों को क्या इस देश में धूल में नहीं मिला दिया जा रहा है? मुझे सुभानबाग की मस्जिद भी तोड़ देने की इच्छा हो रही है। गुलशन के एक नम्बर की मस्जिद सऊदी अरब के रुपये से बनायी गयी है। चलो, उस पर कब्जा करके मंदिर बना लिया जाए।
'क्या कह रहे हो सुरंजन? तुम पागल ही हो गये हो! तुम्हीं तो पहले कहते थे, मंदिर और मस्जिद की जगह पर नहर काट कर हंस छोड़ दूंगा!!
'क्या सिर्फ इतना ही कहता था, कहता था 'चूर-चूर हो जाए धर्म की इमारत, जल जाएँ आँधी आग में मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजा की ईंटें। और उस ध्वंसस्तूप के ऊपर सुगंध बिखेरता हुआ पनपे मनोहर फूलों का बगीचा, पनपे शिशु स्कूल, वाचनालय। मनुष्य के कल्याण के लिए अब प्रार्थनागार हो, अस्पताल हो, हो यतीमखाना, विद्यालय, विश्वविद्यालय। अब प्रार्थनालय हो, शिल्पकला अकादमी, कलामंदिर, विज्ञान, शोधनागार। अब प्रार्थनालय हो, भोर की किरणमय सुनहरा धान का खेत, खुला मैदान, नदी, उफनता समुद्र। धर्म का और एक नाम आज से मनुष्यत्व हो।
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