जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
|
360 पाठक हैं |
प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
विरुपाक्ष, नयन-देवव्रत-सुरंजन के सामने बैठकर तोड़-फोड़ की घटनाओं का जिक्र करता रहा। सुरंजन आँखें बंद किये लेटा रहा। इतनी सारी तोड़फोड़ की घटनाएँ सुनने के बावजूद उसने अपने मुँह से एक भी शब्द का उच्चारण नहीं किया। इनमें से कोई नहीं जानता कि सिर्फ भोला, चट्टग्राम, पिरोजपुर, सिलहट, कुमिल्ला के हिन्दू घरों में ही लूट नहीं हुई, टिकाटुली के इस घर को भी लूट लिया गया है, 'माया' नाम की एक सुन्दर लड़की की। नारी जाति तो काफी हद तक सम्पदा की तरह हा है, इसीलिए सोना, गहना, धन-सम्पदा की तरह माया को भी वे लोग लूट ले गये।
'क्या बात है सुरंजन, तुम चुप क्यों हो? तुम्हें क्या हुआ?'
देवव्रत ने पूछा। 'शराब पीना चाहता हूँ। आज पेट भर शराब नहीं पीया जा सकता?'
'शराब पीओगे?'
'हाँ पीऊँगा?'
‘मेरी जेब में रुपया है, कोई जाकर मेरे लिए एक बोतल व्हिस्की ले आओ न।'
'घर पर बैठ कर पीओगे? तुम्हारे माँ-बाप?'
'गोली मारो माँ-बाप को। मैं पीना चाहता हूँ, पीऊँगा, बीरू जाओ, 'शाकुरा-पियासी' कहीं भी मिल जायेगी।'
'लेकिन सुरंजन दा'
'इतना मत हिचकिचाओ, जाओ।'
उस कमरे से किरणमयी के रोने की आवाज सुनाई पड़ रही है।
'कौन रो रहा है, मौसीजी?' विरुपाक्ष ने पूछा।
'हिन्दू होकर जब जन्म लिया है तो बिना रोये कोई उपाय है?'
तीनों युवक चुप हो गये। वे भी तो हिन्दू हैं। वे समझ सकते हैं कि उन्हें क्यों रोना पड़ रहा है। हरेक की छाती से गूंगा रुदन बाहर निकल रहा था। विरुपाक्ष रुपये लेकर तेजी से चला गया, मानो चले जाने भर से वह सारे दुःखों से छुटकारा पा जायेगा। जैसे सुरंजन शराब पीकर मुक्त होना चाह रहा है।
विरुपाक्ष के चले जाते ही सुरंजन ने पूछा, 'अच्छा, देवव्रत, मस्जिद को नहीं जलाया जा सकता है।'
'मस्जिद! तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया?'
|