जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
किरणमयी के दरवाजा खोलते ही अचानक सात युवक धड़ाम से अंदर घुसे उनमें से चार के हाथों में मोटी-मोटी लाठियाँ थीं, बाकी के हाथों में क्या है, देखने से पहले ही वे किरणमयी को लाँघते हुए अंदर घुसे। उनकी उम्र इक्कीस-बाईस की होगी। दो के माथे पर टोपी थी, पाजामा-कुर्ता पहने हुए थे। बाकी तीन पैंट-शर्ट में थे। वे अन्दर घुसकर किसी से कुछ बोले बिना टेबल, कुर्सी, काँच की आलमारी, टेलीविजन, रेडियो, वर्तन, किताब, कापी, ड्रेसिंग टेबल, कपड़ा-लत्ता, पैडेस्टल फैन, जो कुछ सामने मिला, उन्मादी की तरह तोड़ने लगे। सुधामय ने उठकर बैठना चाहा लेकिन नहीं उठ सके। माया 'पिताजी' कहकर चीख पड़ी। किरणमयी दरवाजे पकड़कर स्तब्ध खड़ी थी। कितना वीभत्स दृश्य था। एक ने कमर से कटार निकालकर कहा, 'साला, बाबरी मस्जिद तोड़ा है। सोचते हो, तुम्हें जिंदा छोडूंगा? घर का एक भी सामान साबुत नहीं छोडूंगा।'
सब झनझनाकर टूटने लगा। क्षणभर में सब कुछ तहस-नहस हो गया। कोई कुछ समझ पाये, इससे पहले माया भी जड़, स्तब्ध खड़ी थी। अचानक वह चिल्ला पड़ी, जब उनमें से एक ने उसका हाथ पकड़कर खींचा। किरणमयी भी अपने धैर्य का बाँध तोड़ती हुई आर्तनाद कर उठी। सुधामय सिर्फ कराह रहे थे। उनके मुँह से कोई शब्द नहीं निकल पाया। अपनी आँखों के सामने उन्होंने देखा कि माया को वे लोग खींच रहे हैं। माया पलंग की पाटी पकड़कर उनसे छूटने की कोशिश कर रही है। किरणमयी दौड़कर अपने दोनों हाथों से माया को पकड़ती है। उन दोनों की शक्ति, दोनों के आर्तनाद को चीरकर वे माया को खींचकर ले गये। किरणमयी उनके पीछे-पीछे दौड़ी। चिल्लाकर कहती रही, 'वेटा, उसे छोड़ दो! मेरी माया को छोड़ दो।'
रास्ते पर दो बेबी टैक्सी खड़ी थीं। माया के हाथ में तव तक सुधामय के लिए तैयार किये जा रहे खाने का गीला दाग था। उसका दुपट्टा खुलकर जमीन पर गिर गया है। वह 'अरे माँ, अरे माँ' कहती चिल्ला रही थी। पीछे मुड़कर आकुल नयनों से किरणमयी को देख रही है। किरणमयी अपनी समूची ताकत लगाकर भी माया को छुड़ा नहीं पाती। उनकी चमकती कटार की परवाह न करते हुए भी उन दोनों को ठेल कर हटाना चाहती है। लेकिन असफल रही। भागती हुई बेबी टैक्सी के पीछे-पीछे वह दौड़ती रही। जो भी राह चलते मिला, कहती, 'मेरी बेटी को पकड़कर ले जा रहे हैं, जरा देखिए न, देखिए न, भैया! चौक की दुकान पर किरणमयी रुकती है। बाल खुले हुए, नंगे पाँव, किरणमयी मोती मियाँ से बोली, 'जरा देखिएगा भैया, अभी-अभी कुछ लोग मेरी बेटी माया को उठा ले गये हैं, मेरी माया को! सभी सहज ढंग से किरणमयी को देखते हैं। मानो कोई रास्ते की पगली है जो अनाप-शनाप बोल रही है। किरणमयी दौड़ती रही।
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