जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
वे किरणमयी से कह रहे हैं, 'आज सब खिड़कियाँ खोल दो तो किरण। घर में इतना अँधेरा रहने से अच्छा नहीं लगता। आज थोड़ी हवा आने दो। शीत की हवा का स्वाद ही नहीं मिला। क्या सिर्फ वसंत की हवा में ही सुख है। युवावस्था में कड़ाके की सर्दी में दीवारों पर पोस्टर चिपकाया करता था। बदन पर एक पतला कुर्ता भर रहता था। मणि सिंह के साथ दुर्गापुर के पहाड़ों में घूमा हूँ। उस समय आंदोलन चोटी पर था। किरणमयी, क्या तुम ‘हाजं विद्रोह' के बारे में कुछ जानती हो?'
किरणमयी का मन भी आज प्रसन्न है। बोली, 'आपने शादी के बाद कितनी बार कहा है कि नेत्रकोना के एक अपरिचित घर में मणि सिंह के साथ आपने कितनी रातें बिताई हैं।"
'अच्छा किरण, क्या सुरंजन गरम कपड़े पहन कर गया है।'
माया ठीक उसी ढंग से उसे उल्टा कहती है, 'अरे नहीं, आपकी ही तरह पतला एक शर्ट पहनकर गया है। ऊपर से वह तो 'ए' कालेज का क्रांतिकारी है। उसके बदन में प्रकृति की हवा नहीं लगती। वह तो युग की हवा सँभालने में व्यस्त है।'
किरणमयी के स्वर में गुस्सा था, 'सारा-सारा दिन कहाँ रहता है, क्या खाता है, खाता भी है या नहीं, भगवान ही जानते हैं। उसकी उच्छृखलता दिन पर दिन बढ़ती जा रही है।
उसी समय दरवाजे पर धीरे-धीरे दस्तक होती है। सुरंजन आ गया क्या? सुधामय के सिरहाने किरणमयी बैठी हुई थी, दरवाजे.की तरफ उठकर गयी। सुरंजन ठीक इसी तरह आवाज करता है। ज्यादा रात हो जाने पर वह अपने कमरे में ही सीधे घुसता है। कभी-कभी अपने कमरे के दरवाजे में ताला लगाकर जाता है। ताला न लगाने पर भी वह बाहर से अंदर की सिटकिनी खोलना जानता है। ज्यादा रात तो नहीं हुई है, इसलिए सुरंजन ही होगा। माया सुधामय के लिए गीले भात में दाल डाल रही थी। ताकि वह नरम हो जाए और सुधामय को खाने में तकलीफ न हो। काफी दिनों से उन्हें गीला खाना खिलाया जा रहा है। डाक्टर 'सेमी सालिड' खाना खाने को कह गये हैं। आज उनके लिए 'सिंगी मछली' का झोल बनाया गया है। माया जब वह भात में थोड़ा-सा झोल मिला रही थी, तभी उसे दरवाजे की 'खट-खट' आवाज सुनायी पड़ी। किरणमयी दरवाजे के पास पहुँचकर पूछती है, 'कौन?' सुधामय कान लगाये हुए थे कि उधर से क्या जवाब आ रहा है।
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