जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
|
360 पाठक हैं |
प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
बंगाली मुसलमानों में भी अरबी नाम रखने का उत्साह दिखाई देता है। अत्यंत प्रगतिशील आदमी भी जो 'बंगाली संस्कृति' की बातें करते हुए नहीं थकता, वह भी जब अपने बच्चे का नाम रखता है तो फैसल रहमान, तौहिदूल इस्लाम, फैयाज चौधरी जैसा कुछ रखता है, क्यों जी? बंगाली मनुष्य का अरबी नाम क्यों होगा? सुरंजन अपनी बेटी का नाम रखेगा 'स्रोतस्विनी प्यार' अथवा 'अगाध नीलिमा'। 'अगाध नीलिमा' ही ठीक रहेगा, क्योंकि यह माया के 'नीलांजना' नाम से अच्छा मेल खाता है, अच्छा, यह नाम माया की लड़की का ही रख दूंगा।
सुरंजन चलता रहा। वह इधर-उधर भटकता रहा। जब वह घर से निकला था, तब उसे लग रहा था कि उसे बहुत काम है। लेकिन बाहर निकलने पर उसे कहीं जाने की जगह नहीं मिली। मानो सभी व्यस्त हैं, सभी अपने-अपने काम पर जा रहे हैं। सिर्फ उसे ही कोई काम नहीं, उसे ही कोई जल्दी नहीं। वह इस आतंक के शहर में बैठकर किसी के साथ दो बातें करना चाहता है।
बंगाल में दुलाल के घर जायेगा क्या? या फिर आजिमपुर में महादेव के घर?' इस्पाहानी कालोनी में काजल देवनाथ के घर भी जाया जा सकता है। कहीं जाने की बात आते ही उसे सिर्फ हिन्दू नाम क्यों याद आ रहे हैं? कल बेलाल आया था, वह बेलाल के घर भी तो जा सकता है, हैदर उस दिन उसके घर से लौट गया, वह तो हैदर के घर जाकर अड्डेबाजी कर सकता है। इन लोगों के घर जाने से वही एक चिनगारी उठेगी, बाबरी मस्जिद। भारत में क्या हो रहा है, कितने लोगों की मौत हुई है, बी. जे. पी. नेताओं ने क्या कहा, किस-किस शहर में सेना तैनात की गयी, कौन-कौन लोग गिरफ्तार हुए, किन लोगों पर रोक लगायी गयी, भविष्य में क्या होगा आदि आदि। उन बातों की चर्चा अब और अच्छी नहीं लगती। उस देश के बी. जे. पी. जैसी है इस देश में जमाती साम्प्रदायिकता की प्रतिष्ठा। वरना दोनों देशों में यदि धर्म की राजनीति पर रोक लगा दी जाती। यहाँ धर्म इस तरह पत्थर की तरह जमा हुआ है कि इससे तृतीय विश्व के क्षुधातुर, निरीह, उत्पीड़ित-शोषित मनुष्यों को शायद मुक्ति नहीं मिल सकती। कार्ल मार्क्स की यह बात उसे बहुत प्रिय है, भीड़ के बीच फुसफुसाकर कहता है, 'धार्मिक क्लेश ही वास्तविक क्लेश की अभिव्यक्ति है और वास्तविक क्लेश के विरुद्ध प्रतिवाद भी। धर्म है उत्पीड़ित प्राणी की दीर्घ श्वास, हृदयहीन जगत का हृदय। ठीक उसी प्रकार जैसे वह है आत्माहीन परिवेश की आत्मा। धर्म है जनता के लिए अफीम।'
चलते-चलते वारी, नवाबपुर नया बाजार, ताँती बाजार, कोर्ट एरिया, रजनी बसाक लेन, गेंडरिय, बेगम बाजार घूम-घूमकर दोपहर बिताकर अंततः सुरंजन काजल के घर गया। वे घर पर ही थे। आजकल सारे हिन्दू घर पर ही मिल जाते हैं। या घर के बाहर कहीं छिपे रहते हैं या फिर घर में ही दुबककर बैठे रहते हैं। काजल के घर पर जाकर वह मन ही मन कहता है, अड्डा मारने वाले सुरंजन के लिए अच्छा ही हुआ। काजल के घर पर और भी कई लड़के मिल गये। सुभाष सिंह, तापस । पाल, दिलीप दे, निर्मल चटर्ली, अंजन मजूमदार, यतीन चक्रवर्ती, साईदुर रहमान, कबीर चौधरी।
|