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लज्जा

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2125
आईएसबीएन :81-7055-777-1

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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...


सुरंजन पुराने ढाका के रास्ते पर चलता रहा और सोचता रहा, इस शहर में इतना घूम चुका हूँ फिर भी मयमनसिंह को भूल नहीं पाया। क्योंकि उसी शहर में उसका जन्म हुआ। इस छोटे से शहर में उसका बचपन और कैशोर्य बीता है। बूढ़ी गंगा में पैर डुबोये हुए वह ब्रह्मपुत्र के बारे में ही सोचता रहता है। यदि कोई मनुष्य अपने जन्म को अस्वीकार करता है, तभी शायद वह अपनी जन्मभूमि, जन्मभूमि की नदी को भूल सकता है। गौतम वगैरह देश छोड़कर चले जा रहे हैं, क्योंकि वे लोग सोच रहे हैं कि यह देश अब उनके लिए निरापद नहीं रहा। लेकिन जाने से पहले व्याकुल होकर क्यों रो रहे हैं। पाँच वर्ष पहले सुरंजन के मामा आये थे, ब्राह्मणबाड़िया में जाकर बिल्कुल बच्चों की तरह रोये थे। किरणमयी ने पूछा, सुरंजन अपने मामा के साथ कलकत्ता जाओगे? यह सुनकर सुरंजन ने 'छिः छिः' किया था।

चार-छह वर्ष पहले उसे एक बार पार्टी के काम से मयमनसिंह जाना पड़ा था। खिड़की से बैठकर हरे-हरे धान के खेत दूर-दूर तक फैली वृक्षों की कतारें, छोटी-छोटी झोपड़ियाँ, पुआल के ढेर, नाल में दौड़ते हुए नंगे बच्चे, गमछा से मछली पकड़ना, जाती हुई रेलगाड़ी को देखते हुए सहज किसानों का चेहरा देखते-देखते उसे लग रहा था वह बांग्लादेश का चेहरा देख रहा है। जीवनान्द ने इस चेहरे को देखा था, इसलिए पृथ्वी के और किसी रूप को देखना नहीं चाहा। सुरंजन की मुग्धता को अचानक ठोकर लगी, जब उसने देखा कि 'रामलक्ष्मणपुर' नामक स्टेशन के बजाय 'अहमद बाड़ी' होकर जा रहा है, फिर एक के बाद एक देखा-काली बाजार का नाम ‘फातिमा नगर', कृष्णनगर का नाम 'औलिया नगर' रखा गया है। सारे देश में इस्लामाइजेशन चल रहा है, मयमनसिंह के छोटे-छोटे स्टेशन भी इसकी लपेट से नहीं बचे। ब्राह्मणबाड़िया को लोग 'बी. वाड़िया' कहते हैं। बटिशाल के ब्रजमोहन कालेज को 'बी. एम. कालेज', मुरारी चाँद कालेज को ‘एम. सी. कालेज' कहा जाता है। शायद हिन्दू नाम मुँह से निकल न जाए, इसीलिए यह संक्षेपीकरण है। सुरंजन को आशंका इस बात की है कि शीघ्र ही संक्षेपीकरण भी हटकर 'मुहम्मद अली कालेज', 'सिराजुउद्दौला कालेज' बन जायेगा। ढाका विश्वविद्यालय के 'इकबाल हाल' का नाम बदलकर 'सूर्य सेन हाल' किये जाने पर स्वतंत्रता प्राप्ति के इक्कीस वर्ष बाद स्वतंत्रता विरोधियों ने कहा कि सर्य सेन डकैत थे, डकैत के नाम पर 'हॉल' का नाम कैसे हो सकता है? इसका मतलब है कि उस नाम को बदल दिया जाए। सरकार कभी उनकी इस बात को नहीं मानेगी, यह नहीं कहा जा सकता। क्योंकि साम्प्रदायिक शक्ति की सहायता से बी. एन. पी. सत्ता में आयी है और वह भी घुमा-फिराकर सम्प्रदायवादियों की रक्षा कर रही है।

पुराने ढाका के गली-कूँचों में घूमते-घूमते सुरंजन ने देखा कि सही-सलामत हिन्दू दुकानें बंद हैं। वे दुकान खोलेंगे ही किस भरोसे पर। फिर भी नब्बे के बाद, बानवे के बाद खुली थीं। शायद हिन्दुओं के बदन का चमड़ा गैंडे के चमड़े जैसा है। तभी तो लोग जले हुए, टूटे हुए घरों को फिर बनाते हैं। टूटी हुई दुकान फिर से जुड़ती है। घर-द्वार, दुकान-पाट तो मान लीजिए चूना-सीमेंट से जुड़ जायेगा। लेकिन टूटा हुआ मन क्या फिर से जुड़ेगा?

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