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लज्जा

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2125
आईएसबीएन :81-7055-777-1

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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...


सुरंजन उदास नजरों से एक टुकड़ा बरामदे की तरफ देखता रहा। किराये का मकान है न आँगन है, न टहलने और दौड़ने के लिए मिट्टी। किरणमयी चाय का प्याला लिये हुए कमरे में आती है। माँ के हाथ से चाय का प्याला लेते हुए सुरंजन ने इस तरह से कहा, 'दिसम्बर आ गया, लेकिन सर्दी नहीं पड़ी, बचपन में जाड़े की सुबह में खजूर का रस पीया करता था, मानो कुछ हुआ ही नहीं हो।

किरणमयी ने लम्बी साँस छोड़ते हुए कहा, 'किराये का मकान है, यहाँ खजूर का रस कहाँ मिलेगा। अपने ही हाथों लगाये पेड़-पौधों वाला मकान तो पानी के भाव बेच आयी।'

सुरंजन चाय की चुस्की लेता है और उसे याद आ जाता है खजूर काटने वाले रस की हाँडी उतार लाते थे। माया और वह पेड़ के नीचे खड़े ठिठुरते रहते थे। बात करने पर उनके मुँह से धुआँ निकलता था। वह खेलने का मैदान, आम, जामुन, कटहल का बगीचा आज कहाँ है! सुधामय कहते थे, यह है तुम्हारे पूर्वजों की मिट्टी, इसे छोड़कर कभी कहीं मत जाना।

अन्ततः सुधामय दत्त उस मकान को बेचने के लिए बाध्य हुए थे। जब माया छह वर्ष की थी तब एक दिन स्कूल से घर लौटते समय कुछ अजनबी उसे उठा ले गये थे। शहर में काफी तलाश करने के बाद भी कुछ पता नहीं चला था। वह किसी रिश्तेदार के घर नहीं गई, जान-पहचान वालों के घर भी नहीं गई, वह एक टेन्शन की घड़ी थी। सुरंजन ने अनुमान लगाया था कि एडवर्ड स्कूल के गेट के सामने कुछ लड़के पाकेट में छुरा लिए हुए अड्डेबाजी करते हैं, वे ही माया को उठा ले गये होंगे। दो दिनों के बाद माया खुद-ब-खुद चल कर घर आ गयी थी, अकेले। उस समय वह कुछ बता नहीं पायी थी कि वह कहाँ से आ रही है, कौन लोग उसे पकड़ ले गये थे। पूरे दो महीने तक माया असामान्य आचरण करती रही। नींद में भी चौंक जाती थी। आदमी देखते ही डर जाती थी। रात-रात भर घर पर पथराव होने लगा। बेनामी चिट्ठियाँ आने लगी कि वे माया का अपहरण करेंगे। जिन्दा रहने के लिए रुपया देना होगा। सुधामय शिकायत दर्ज करने के लिए थाना में भी गये थे। थाने में पुलिस ने सिर्फ नाम-धाम, पता आदि लिख लिया था, बस इतना ही हुआ और कुछ नहीं। वे लड़के घर में घुसकर बगीचे से फल तोड़ लेते, सब्जी बागान को पैरों से कुचल देते, इतना ही नहीं, फूलों को भी नष्ट कर देते थे। कोई कुछ बोल नहीं सकता। मुहल्ले के लोगों के सामने भी इस समस्या को रखा गया लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। उनका कहना था, हम लोग क्या कर सकते हैं? यही सिलसिला चलता रहा।

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