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लज्जा

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2125
आईएसबीएन :81-7055-777-1

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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...


अपने कुछ दोस्तों को साथ लेकर सुरंजन ने समस्या को सुलझाना चाहा था। शायद समाधान भी किया जा सकता था, लेकिन सुधामय ने नहीं माना। उन्होंने निर्णय लिया कि मयमनसिंह से तबादला करा लेंगे। घर बेच देंगे। घर बेचने का एक और भी कारण था। इस घर को लेकर लम्बे समय से मुकदमा चल रहा था। उनके पड़ोसी शौकत अली जाली दलील दिखाकर घर पर कब्जा करने की कोशिश कर रहे थे। इसे रोकने के लिए लम्बे समय से कोर्ट-कचहरी की भाग-दौड़ करते-करते सुधामय अब आजिज आ गये थे। सुरंजन घर बेचने के पक्ष में नहीं था। वह उस समय कॉलेज में पढ़ने वाला गर्म खून का युवक था। छात्र संघ से कॉलेज संसद के निर्वाचन में खड़ा होकर जीता है। वह अगर चाहे तो उन बदमाशों को सीधा कर सकता है लेकिन सुधामय घर बेचने के लिए उद्विग्न हो गये। वे और इस शहर में नहीं रहेंगे, ढाका चले जायेंगे। इस शहर में उनकी डॉक्टरी भी ठीक से नहीं चल रही थी। स्वदेशी बाजार की फार्मेसी में शाम को बैठते थे। रोगी नहीं आते, दो-चार आते भी तो वे हिन्दू दरिद्र। इतने दरिद्र कि उनसे पैसा लेने की इच्छा ही नहीं होती। सुधामय की उद्विग्नता देखकर सुरंजन ने भी जिद नहीं की। अब भी उसे दो बीघा जमीन पर बने अपने विशाल मकान की याद आती है। उस वक्त दस लाख रुपये के मकान को सुधामय ने मात्र दो लाख रुपये में रईसउद्दीन साहब के हाथों बेच दिया। फिर किरणमयी से बोले, 'चलो-चलो सामान बाँधकर तैयार हो जाओ।' दहाड़ें मार-मार कर किरणमयी रोई थी। सुरंजन को यकीन नहीं आ रहा था कि सचमुच वे लोग यहाँ से जा रहे हैं। जन्म से जाना-पहचाना घर-द्वार छोड़कर, शैशव के क्रीड़ा स्थल को छोड़कर, ब्रह्मपुत्र छोड़कर, यार-दोस्तों को छोड़कर जाने की उसकी इच्छा नहीं थी। जिस माया के लिए सब कुछ छोड़कर जा रहे थे वही माया गर्दन हिला-हिलाकर कह रही थी, 'मैं सूफिया को छोड़कर नहीं जाऊँगी।' सूफिया उसकी बचपन की सहेली थी। पास में ही उसका घर था। शाम को आँगन में बैठकर दोनों गुड्डे-गुड़ियों का खेल खेलती थीं। वह भी माया में जकड़ गई थी। मगर सुधामय ने किसी की नहीं सुनी। यद्यपि उनका सम्बन्ध ही वहाँ से ज्यादा था। उन्होंने कहा, 'जिन्दगी के अब दिन ही कितने बाकी रह गये, अन्तिम दिनों में बाल-बच्चों को लेकर जरा निश्चित जिन्दगी बिताना चाहता हूँ!'

क्या निश्चित जीवन बिताना कहीं भी सम्भव है? सुरंजन को मालूम है, यह सम्भव नहीं। जिस ढाका में आकर सुधामय निश्चित हुए थे, उसी ढाका में, एक स्वतंत्र देश की राजधानी में, सुधामय को धोती छोड़कर पाजामा पहनना पड़ा। सुरंजन को अपने पिता के दर्द का अहसास हो रहा था। वे जुबान से कुछ नहीं कहते थे फिर भी उनकी आहें दीवारों से टकराती रहती थीं। सुरंजन यह सब कुछ समझ रहा था। उनके सामने एक दीवार थी, वे लाख कोशिश करने के बावजूद उस दीवार का अतिक्रमण नहीं कर पाये। न सुधामय, न ही सुरंजन।

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