नई पुस्तकें >> देवव्रत देवव्रतत्रिवेणी प्रसाद त्रिपाठी
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भीष्म पितामह के जीवन पर खण्ड-काव्य
उन वसुओं की यह शर्त रही,
होने पर जन्म फेंक देना-
गंगा की प्रखर धार में जा,
वह ही है पूर्ण किया मैंने॥42॥
यह पुत्र आठवाँ हे नृपेंद्र!
होगा पराक्रमी पृथ्वी पर,
सातों वसुओं से अंश प्राप्त-
है, एक साथ में इस सुत को॥43॥
बोले राजन् 'हे देवि! सुनें,
इतिहास जानकर छटा कष्ट,
यह कृपा पात्र आपका बने,
हो गंगा-पुत्र नाम इसका॥44॥
इस तरह देवव्रत पहुँच गया,
पितु-पास, जननि के आश्रय से,
एवं संरक्षण में उनके,
हर विद्या लगा सीखने वह॥45॥
क्रमशः प्रस्फुटित हो रहा था,
चेहरे पर उसके महा तेज,
बल-बुद्धि उभय थे पनप रहे,
पाकर गुण उसकी काया का॥46॥
थीं उभय भुजाएँ अति वलिष्ठ,
छाती मानो सर्दूल-सदृश,
चेहरे पर तेज अपरिमित था,
विद्या में भी था पारंगत॥47॥
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