नई पुस्तकें >> देवव्रत देवव्रतत्रिवेणी प्रसाद त्रिपाठी
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भीष्म पितामह के जीवन पर खण्ड-काव्य
अब करो कृपा मेरे ऊपर,
दो प्राण-दान इस सुत को तो,
तुम बचो आठवीं हत्या से,
एवं मेरा कुल-दीप बचे॥36॥
बोली रानी, हे नृपति ! सुनो,
है इच्छा तीव्र तुम्हें सुत की,
इसलिए न इसको मारूँगी,
पर मुझे अभी जाना होगा॥37॥
मेरा परिचय हे नृपति ! सुने,
'मैं सुता जान्हव की नरपति,
सेवित होती ऋषियों द्वारा,
उनके सब कार्यसिद्धि खातिर॥38॥
मैं रही तुम्हारे साथ यहाँ,
करने को मुक्त आठ वसुओं-
को, जो वशिष्ठ ऋषि से श्रापित-
थे, अपनी कुछ भूलों को कर॥39॥
ये आठों तनय आपके नृप,
तेजस्वी वसु ही थे राजन्,
जो पाये - यहाँ मनुष्य योनि,
होने को मुक्त बद्दुआ से॥40॥
था और नहीं दूजा कोई,
इस पृथ्वी पर जो पिता बने,
एवं कोई मानवी न थी,
जो रखे गर्भ में उन सबको॥41॥
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