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देवव्रत

त्रिवेणी प्रसाद त्रिपाठी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16642
आईएसबीएन :978-1-61301-741-8

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भीष्म पितामह के जीवन पर खण्ड-काव्य



वह सदा घूमता रहता था,
जंगल में शर-सन्धानन को,
जिस पशु पर संधाने वह शर
उसकी थी मृत्यु सुनिश्चित ही॥48॥

पिता मग्न थे राज-कार्य में,
सुख-सुविधाओं में लोगों की,
धार तेज कर रहा पुत्र-
वाणो की, अपनी ऊर्जा दे॥49॥

एक दिवस अचानक पहुँच गया,
सम्मुख में अपने बापू के,
चेहरा मलीन, चिंतित देखा,
दुख-रेखाएँ उभरी मुँह पर॥50॥

पर पुत्र नहीं था बोल सका,
राजन से कोई बात वहाँ,
मन ही मन में था सोच रहा,
किसलिए पिताश्री चिंतित हैं॥51॥

इधर एक दिन शान्तनु थे,
कालिंदी तट पर घूम रहे,
चलते-चलते देखा उनने,
कुछ कन्याएँ थी घूम रही॥52॥

उन कन्याओं के मध्य एक,
अति सुन्दर कन्या दीख पड़ी,
ऐसा लगता मानो दुर्गा,
अवतरित हुई भूतल पर आ॥53॥

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