नई पुस्तकें >> देवव्रत देवव्रतत्रिवेणी प्रसाद त्रिपाठी
|
0 |
भीष्म पितामह के जीवन पर खण्ड-काव्य
बोली हे नृपति! आप सचमुच,
हैं धीर-वीर निष्कामी भी,
मैं भी चाहूँ बरना प्रभु को-
पति-रूप, उदय हो भाग्य मेरा॥24॥
फिर आकर निकट शान्तनु के,
माधुर्य सनी वाणी बोली,
स्वीकार मुझे पत्नी बनना-
आपकी, रहें साक्षी सुरगण॥25॥
पर उससे पहले शर्त एक,
यदि आप वरण मुझको करते,
मैं जो भी चाहूँ करूँ, कहूँ,
होगा न विरोध आप द्वारा॥26॥
जिस क्षण मुझको आभास हुआ,
वह होगा मेरा, अन्त समय-
पृथ्वी पर रहने का राजन्,
भू लोक छोड़, जाऊँगी मैं॥27॥
उसकी शान्तनु से परिणय की-
थी एकमात्र मंशा, केवल,
चाहती मुक्ति थी वसुओं की,
दे जन्म कुक्षि से अपनी वह॥28॥
राजा प्रतीप की वह वाणी,
आई थी याद उभय को ही,
वसुओं की मुक्ति प्रतीप-कथन,
दोनों ही थे परिणय-माध्यम॥29॥
|