नाटक-एकाँकी >> दरिंदे दरिंदेहमीदुल्ला
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आधुनिक ज़िन्दगी की भागदौड़ में आज का आम आदमी ज़िन्दा रहने की कोशिश में कुचली हुई उम्मीदों के साथ जिस तरह बूँद-बूँद पिघल रहा है उस संघर्ष-यात्रा का जीवन्त दस्तावेज़ है यह नाटक
रति : अलगाव भरी दौड़। रिश्तों के बीच अकेलापन। झूलती परिस्थितियाँ।
(स्वालाप) क्या अपने को अपराधी महसूस करने लगी हो ?...तो...बोलो, फिर क्या
करूँ तुम्हारे लिए ?...आत्मा की हत्या या हत्या ?
(पार्श्व से आवाज़ें-हैलो, हैलो, हैलो, हैलो, हैलो, हैलो, हैलो, हैलो,
हैलो....। रति वहाँ यहाँ बिना इरादा चक्कर काटती है। फिर रुककर काल्पनिक
टेलीफोन का चोंगा उठाती है। मंच के दूसरी ओर गोलाकार में प्रकाश आता है,
जहाँ पुरुष टेलीफोन पर है।)
रति : हैलो। कौन ?
सुरेश (पु.) : मैं सुरेश।
रति : कैसे हो ?
सुरेश : ठीक हूँ। और तुम ?
रति : मैं...? (गले में जैसे कोई चीज़ फँस जाती है)
सुरेश : तुम्हारे वो...मजे में हैं ?
रति : हाँ।
सुरेश : खाली हो इस वक्त ? आ जाऊँ ?
रति : नहीं।
सुरेश :शाम को रखें ?
रति : शाम को भी नहीं। वह दफ्तर से आ जाते हैं।
सुरेश : दोपहर को ?
रति : कभी-कभी लंच में घर आ जाता है।
सुरेश : तीन-चार बजे।
रति : हूँ।
(सुरेश की तरफ़ का प्रकाश लुप्त हो जाता
है। रति के कक्ष में क्षणिक मौन के पश्चात फिर ‘हैलो, हैलो,
हैलो’ की पार्श्व आवाज़ें। वह इधर-उधर दौड़ती है। फिर हथेली पर
सिर रखकर बैठ जाती है।)
मुझसे नहीं हो पा रहा। नहीं हो पा रहा।
(दूसरी ओर सुरेश के कक्ष में फिर प्रकाश
आता है। सुरेश काल्पनिक टेलीफोन पर बात करता है।)
सुरेश : डरती हो ?
रति : डर की कोई बात नहीं है। इस घर में आराम की हर चीज़ मौजूद है। अतुल
बड़े पद पर हैं। उसके पास बेहद पैसा है। मुझे, मुझे तलाश है...
सुरेश : सुरक्षा के लिए किसी जानवर की। एक कुत्ता भेज रहा हूँ। काम आयेगा।
रात में...
रति : मुझे रात अब अच्छी नहीं लगती। कुछ स्थितियाँ ऐसी भावुक होती हैं
जिनमें फैसला करना कठिन हो जाता है।
सुरेश : फिर किसकी तलाश है ?
रति : मौक़े की।
सुरेश : ख़ून से डर लगता है ?
रति : स्त्री को ख़ून और आग से डर नहीं लगता। पूरी ज़िन्दगी ख़ून और आग के
साथ रहना पड़ता है उसे।
सुरेश : मैं मदद करूँ ?
रति : हर स्त्री अपने आप में बहुत सक्षम है।
(सुरेश के कक्ष में प्रकाश लुप्त होता है।
इसके साथ ही फिर ‘हैलो, हैलो, हैलो, की पार्श्व आवाज़ें। रति
तेज़ी से विंग्स में चली जाती है। तेज़ गौंग की आवाज़। घबरायी हुई रति
वापस लौटती है, ठीक उसी तरह जैसे कोई ख़ून का अपराधी। हौले-हौले कदम
बढ़ाती, काल्पनिक टेलीफोन पर आती है।)
हैलो, पुलिस स्टेशन ? मैं मिसेज अतुल बोल
रही हूँ। मेरे हजबैण्ड पिछले हफ्ते टूर पर गये थे। उन्हें दो दिन बाद लौट
आना था। अभी तक नहीं लौटे। मैं उन्हें काण्टेक्ट करने की कोशिश कर रही
हूँ। मीन-ह्वाइल प्लीज डू समथिंग टू फाइण्ड हिम आउट। आइ’ ल रिंग
यू अगेन।
(सती की आकृति आलोकित होती है।
पार्श्वसंगीत। रति सती को देखकर चौंक जाती है।)
रति : कौन हो तुम ?
सती : मैं सती हूँ।
रति : कहाँ से आयी हो ?
सती : अतीत से।
रति : क्या चाहती हो ?
सति : यह जानना कि जो तुमने किया, वह उचित है ?
रति : उसका मुझे कोई अफसोस नहीं है। मैं ज़िन्दगी को अपनी तरह जीनी चाहती
हूँ। लेकिन तुम्हें मुझसे हमदर्दी क्यों है ?
सती : मैं तुम्हारा ही एक रूप हूँ।
रति : तुम मेरा कोई रूप नहीं हो सकती। तुम संस्कारयुक्त हो। मैं मुक्त।
सती : तुम कुतिया नहीं हो ?
रति : (हँसती है) मैं एक कस्तूरी मृग हूँ, जिसकी भीनी-भीनी खुशबू से माहौल
महक जाता है।
सती : गणिका और तुममें कोई भेद नहीं है।
रति : वह एक मजबूरी है। वह एक चाहत है। मैं अपनी ‘नेचुरल
अर्ज’ पूरी करने के लिए पुरुष का साथ चाहती हूँ। बिलकुल उसी तरह
जैसे कोई पुरुष किसी स्त्री का साथ चाहता है।
सती : ऐसी स्त्री कुलवधू नहीं हो सकती।
रति :तुम एक कुलवधू हो सकती हो। मैं उन स्त्रियों में नहीं हूँ, जो अपने
शरीर को फ़ीडिंग बॉटल बना देती है।
सती : प्रकृति औरत को एक शरीर देती है।
रति : जो उसकी नियति बन जाता है।
सती : हाँ, नियति। एक रेखा। मर्यादा। भावना।
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