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नाटक-एकाँकी >> दरिंदे

दरिंदे

हमीदुल्ला

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1987
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1454
आईएसबीएन :00000

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आधुनिक ज़िन्दगी की भागदौड़ में आज का आम आदमी ज़िन्दा रहने की कोशिश में कुचली हुई उम्मीदों के साथ जिस तरह बूँद-बूँद पिघल रहा है उस संघर्ष-यात्रा का जीवन्त दस्तावेज़ है यह नाटक


रति : नियति ! (विराम) (कटाक्ष) नियति...खिलवाड़ ! जुल्म ! आत्महत्या ! तुम वही स्त्री हो न, जिसने अपने सतीत्व की रक्षा में तीन मंजली इमारत की खिड़की से कूद कर आत्महत्या कर ली थी ? वही तो हो तुम। (अचानक जैसे कोई भूली बात याद आ गयी) और हाँ, तुम मेरी विधवा बहन भी हो। वही बहन, जो एक नाजायज़ बच्चे की माँ बनने वाली थी। और जिसने अपनी तथाकथित शर्म छुपाने के लिए आत्महत्या कर ली थी। चुप क्यों हो ? बोलती क्यों नहीं ? आत्महत्या उस जानवर ने क्यों नहीं की, जो अपना खोखलापन छुपाने के लिए तुम्हें अपने दोस्त से गर्भवती बनाना चाहता था। या उसने, जो तुम्हारे तथाकथित नाजायज़ बच्चे का बाप था। अपने नारी-शरीर की नियति में, मैंने मरना नहीं जीना सीखा है।
सती : भावना का कोई अर्थ नहीं है ?

रति : पति के शव के साथ सती हो जाना या अपनी इच्छा के खिलाफ किसी दूसरे की इच्छा पर चलना, बलि है। ठीक उसी तरह की बलि, जो आदिम युग से आज तक अनेक उत्सवों पर होती रही है। इनसानों की बलि। जानवरों की बलि। पाशविक अत्याचार। कमज़ोर के खिलाफ़ ताक़तवर की साजिश कि उसे इसके लिए या उसके लिए ज़िन्दा रहना या मर जाना चाहिए। क्यों हर बार किसी भेड़, बकरी, गाय, स्त्री या बच्चे की बलि दी जाती है ? क्यों नहीं किसी शेर की बलि दी जाती है ? (विराम) क्यों एक स्त्री वैसे नहीं जी सकती, जैसे एक पुरुष जीता है ? तुम खुद कमज़ोरी का शिकार रही हो। तुम्हारे तर्क मुझे कमजोर बना सकते। चारों तरफ़ बड़ी दरिन्दगी है। इसमें तुम्हारे जैसे पात्रों के लिए कोई जगह नहीं, जो एक बकरी या मेमने की तरह व्यवहार करें। तुम अतीत में लौट जाओ। तुम अतीत में लौट आओ। (उपर्युक्त पार्श्व-संगीत। सती की ओर का प्रकाश धीरे-धीरे धूमिल होकर समाप्त होता सती की आकृति को विलुप्त कर देता है। सुरेश का प्रकोष्ठ आलोकित होता है। सुरेश काल्पनिक टेलीफोन पर रति से बात करता है।)
सुरेश : हियर यू आर माई, गर्ल ! अब मैं जान गया, तुम सच-मुच बहुत सक्षम हो। अब हमें जल्द शादी कर लेनी चाहिए। क्या ख़्याल है तुम्हारा ?

रति : शादी : डैम विद दिस शादी बिजनेस। क्यों बँधे हम, जब वैसे ही हम एक-दूसरे को आसानी से पा सकते हैं।
सुरेश : रति, माई लव ! यह क्या कह रही हो, तुम ?
रति : मैं तुम्हें पहचान गयी हूँ। यू एक्सप्लॉएटर ! दरिन्दे।
सुरेश : रति, माइ डार्लिंग ! आइ प्रॅपोज़।
रति : आइ अपोज़।
सुरेश : डियर, आइ ऑनेस्टली प्रॅपोज़।
रति : पुअर, चैप आइ ऑनेस्टली अपोज़।
सुरेश : रति....
रति : हा-हा-हा-हा-हा-हा-हा-हा....

    (रति के प्रकोष्ठ का प्रकाश समाप्त हो जाता है।)

सुरेश : रति...(प्रकाश धीरे-धीरे सिकुड़कर सुरेश पर केन्द्रित होता हुआ विलुप्त हो जाता है। दृश्य परिवर्तन-सूचक उपर्युक्त पार्श्वसंगीत। पुनः प्रकाश आने पर मंच के बीच की चौकी पर शेर और उसकी दायीं ओर आगे स्टूल के पास दार्शनिक नीचे बैठा है। लोमड़ी और भालू का साथ-साथ प्रवेश।)
लोमड़ी-भालू : स्वार्थी, धोखेबाज, ढोंगी,।
        जमाख़ोर, मुनाफाख़ोर, तस्कर, पाखण्डी।
        चालबाज़, बटेरबाज़, लालची।
शेर : क्या समाचार लाये ? सत्ता से मिले ?
लोमड़ी-भालू : हम एक बगुले रंग के जीव से मिले।
शेर : नेता से।
लोमड़ी-भालू : हम एक गिरगिटरूपी अवसरवादी से मिले।
शोर : दलबदलू से।
लोमड़ी-भालू : हम एक सुअररूपी मुनाफाख़ोर से मिले।
शेर : पूँजीपति।
लोमड़ी-भालू : हम अण्डर वर्ल्ड के असुरराज से मिले।
शेर : स्मगलर।
लोमड़ी-भालू : फिर हम एक ऐसे विस्तार से मिले, जो...हर गली, हर बाज़ार, हर दफ़्तर, हर कारबार में, भिन्न-भिन्न रंग, रूप और आकार में, सर्वत्र व्याप्त था।

शेर : कोई पहेली है ?
लोमड़ी : हाँ।
शेर : क्या ?
भालू : एक विस्तार।
शेर : जो हर गली में
भालू : हर बाज़ार में
लोमड़ी : हर दफ़्तर में
शेर : हर कारबार में
भालू : अलग-अलग रंग में
लोमड़ी : अलग-अलग रूप में
शेर : भिन्न भिन्न आकार में
लोमड़ी :बूझो तो जानें ?
शेर : अता-पता बताओ ?
भालू : बहुत भयावह
लोमड़ी : बहुत गम्भीर

भालू : संक्रामक रोग की तरह सर्वत्र व्याप्त।
लोमड़ी : बूझो तो जानें ?
शेर : (सोचता है।)
वि.दा. : नहीं समझे ?
शेर : अहाँ !
वि.दा. : मैं बताऊँ ?
शेर : बताओ।
वि.दा. : करपशन।
शेर : हाँ, करपशन।
भालू : अनाचार।
लोमड़ी : दुराचार।
शेर : भ्रष्टाचार।
वि.दा. : इस जहाँ का यारो क्या होगा ?
        हर साख पे अफ़सर बैठा है।
शेर : (लोमड़ी और भालू से) सत्ता से क्यों नहीं मिले ?
वि.दा. : यही तो सत्ता है।

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