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नाटक-एकाँकी >> दरिंदे

दरिंदे

हमीदुल्ला

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1987
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1454
आईएसबीएन :00000

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आधुनिक ज़िन्दगी की भागदौड़ में आज का आम आदमी ज़िन्दा रहने की कोशिश में कुचली हुई उम्मीदों के साथ जिस तरह बूँद-बूँद पिघल रहा है उस संघर्ष-यात्रा का जीवन्त दस्तावेज़ है यह नाटक

[ परदा उठने से पूर्व ]


ढोलक, झाँझ और मंजीरों के तेज़ ताल और लय में बजने की आवाज़, जो परदा उठने के बाद भी कुछ क्षणों तक जारी रहकर भजन-कीर्तन में विलीन हो जाती है।

[ परदा उठने के बाद ]


सामने चौकी पर स्वामीजी और उनके आस-पास नीचे जमीन पर बैठे भक्तजन अपने-अपने हाथों में विभिन्न वाद्य लिए स्वामीजी की अगुआई में भजन गाते दिखाई देते हैं। भजन के अन्तरों के बीच ‘भागो, भागो, भागो’ की पार्श्वध्वनियाँ उभरती हैं, जो इस भक्ति-भावमयी वातावरण को चीर रही हैं। जब-जब ये ध्वनियाँ उभरती हैं, मंच पर पात्र फ्रीज़ हो जाते हैं। कुछ क्षणों बाद भजन की लय तेज़ होने लगती है। एक-एक करके भक्तजन नृत्य-मुद्रा में खड़े होने लगते हैं। ‘भागो-भागो’ की पार्श्वध्वनियाँ अब जल्दी-जल्दी विघ्न डालने लगती हैं।

[गायन। वादन। पार्श्वध्वनियाँ। फ्रीज़। मौन।]
[दो-तीन बार यही क्रम।]
[विक्षिप्त दार्शनिक का प्रवेश।]

वि.दा. : भागो, भागो, भागो.....(भक्तजन कुछ क्षण अनिश्चय की मुद्रा में विक्षिप्त दार्शनिक की ओर देखते हैं, फिर असमंजस में भागने लगते हैं।)
स्वामी : ठहरो। (सभी पात्र फ्रीज़ हो जाते हैं। बाद में यह फ्रीज़ स्वामी और दार्शनिक के वार्तालाप के बीच टूट जाता है।) क्या बात है ?
वि.दा. : भागो, भागो, भागो।
स्वामी : कहाँ भागें ? क्यों भागें ?
वि.दा. :तुमने आज रेडियो नहीं सुना ?
स्वामी : सुना है। और यह भी सुना है कि जिस चीज़ की कमी की ख़बर रेडियो पर आती है, वह अचानक बाज़ार से ग़ायब हो जाती है।
वि.दा. : जिस चीज़ का राष्ट्रीयकरण होता है, वह बाज़ार से उड़ जाती है।
स्वामी : क्या तुम भी किसी ऐसी ही चीज़ के लिए भाग रहे हो, जैसे दूध ?
पात्र-1: गेहूँ ?
पात्र-2: चीनी ?
पात्र-3: चावल ?
पात्र-4: तेल ?
पात्र-4: पेट्रोल ?
वि.दा. : नहीं, नहीं, नहीं। ये आवाज़ें सुन रहे हो ?

(पार्श्व में ‘भागो, भागो’ का शोर)

स्वामी : ये लोग कहाँ भागे जा रहे हैं ? कहीं लाइन लगानी है ? अनाज के लिए, पानी के लिए, हवा के लिए ?
वि.दा. : लगता है तुमने आज रेडियो से समाचार बुलेटिन नहीं सुना ? (सभी पात्र एक-दूसरे की तरफ़ देखते हैं। आपस में, ‘सुना’ ‘नहीं सुना’ की भिनभिनाहट। सभी आश्चर्यचकित हो दार्शनिक की तरफ़ देखते हैं।)
अभी-अभी ख़बर आयी है कि दुनिया के सारे गधों को पकड़कर जेल में बन्द किया जायेगा।
पात्र-1 और-2 : स्वामी !
स्वामी : चुप ! हम कोई गधे थोड़े ही हैं। (दार्शनिक से) और भाई, देखने में तो तुम भी गधे दिखाई नहीं देते। फिर क्यों भागें ?
वि.दा. : कुछ पता नहीं है। बहुमत के आधार पर कब किसे गधा साबित कर दिया जाये।
सभी पात्र : हाँ, स्वामी। बहुमत के आधार पर गधा साबित किया जा सकता है।
वि.दा. : इसीलिए कहता हूँ, भागो. भागो...

(दार्शनिक का ठहाका। पात्रों में भगदड़।)

स्वामी : रुको।
(सभी पात्र अपने-अपने स्थान पर खड़े हो जाते हैं।)
वि.दा. : क्या आप सबको इस बेचारगी पर एक मिनट तसल्ली से बैठकर हँसने की फ़ुरसत नहीं है ? (पॉज़) नहीं है। अच्छा, हँसना नहीं चाहते तो मत हँसो। रो लो, उन पर जो बलि के लिए ,समर्पित हैं।
स्वामी : बलि के लिए समर्पित ? कौन भाई ?
वि.दा. : आदर्श।
पात्र-1 : अभाव में कोई आदर्श नहीं चलता।
वि.दा. : राष्ट्रीय चरित्र।
पात्र-2 : भूखे का कोई चरित्र नहीं होता।
वि.दा. : सभ्यता।
पात्र-3 : रोटी नहीं देती।
वि.दा. : संस्कृति।
पात्र-4 : कल्चर, एग्रीकल्चर की तरह ज़रूरत पूरी नहीं करता।
वि.दा. : देश-कृषि प्रधान है।
पात्र-5 : देश कुरसी-प्रधान है।
स्वामी : अभाव, भूख, बीमारी।
वि.दा. : थोड़े से अवसरवादी, चन्द मुनाफाख़ोर सारी स्थिति का नाजायज़ फ़ायदा उठा रहे हैं।
सभी पात्र : शैतान के उस्ताद।
वि.दा. : हाँ। आज ज़िन्दगी के दिन की शुरुआत दूध के लिए लाइन में खड़े होने से होती है। इन्होंने इस युग के उस महान सत्यवादी को भी झूठा साबित कर दिया, जिसने कहा था, स्वराज के बाद दूध की नदियाँ बहेंगी।
सभी पात्र : गधे, सुअर, कुत्ते।
वि.दा. : अपने मालिक और अपने प्रति वफ़ादार। लेकिन ये सब और कितने दिन चलेगा ?

(पार्श्व में शेर की दहाड़। सभी भयभीत)

स्वामी : यह आवाज़ कैसी है ? देखना भई !

(एक पात्र थोड़ा आगे विंग्स की तरफ़ जाता है। तेज़ी से लौटता है।)

 पात्र : शेर ! शेर !

(सभी पात्र भागो, भागो’ चिल्लाते हुए मंच से बाहर भाग जाते हैं। दार्शनिक विस्मित खड़ा है। उन्हें भय से भागते हुए देखता है।)

भाग गये ! सब आतंक में जी रहे हैं। गीदड़ !

(शेर का प्रवेश।)

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