नाटक-एकाँकी >> दरिंदे दरिंदेहमीदुल्ला
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आधुनिक ज़िन्दगी की भागदौड़ में आज का आम आदमी ज़िन्दा रहने की कोशिश में कुचली हुई उम्मीदों के साथ जिस तरह बूँद-बूँद पिघल रहा है उस संघर्ष-यात्रा का जीवन्त दस्तावेज़ है यह नाटक
दरिन्दे
आधुनिक ज़िन्दगी की भागदौड़ में आज का आम आदमी ज़िन्दा रहने की कोशिश में
कुचली हुई उम्मीदों के साथ जिस तरह बूँद-बूँद पिघल रहा है उस
संघर्ष-यात्रा का जीवन्त दस्तावेज़ है यह नाटक-जिसे 9 दिसम्बर, 1973 को
मावलंकर ऑडिटोरियम नयी दिल्ली में अ. भा. सर्वभाषा नाटक प्रतियोगिता में
प्रदर्शित किया गया और विभिन्न भारतीय भाषाओं के नाटकों में यह केवल
सर्वश्रेष्ठ ठहराया गया, बल्कि इसके निर्देशक तथा प्रमुख पुरुष एवं नारी
पात्रों को उनके कृतित्व के लिए प्रथम पुरस्कार भी भेंट किये गये।
नये संस्करण की भूमिका
‘दरिन्दे’ के नये संस्करण के प्रकाशन के अवसर पर मैं
उन नाट्य प्रेमियों और रंगकर्मियों के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता
हूँ जिन्होंने मेरी नाट्य रचनाओं को अपनाया और मंचन के लिए चुना।
‘दरिन्दे’ के प्रकाशन के पश्चात् बड़ी संख्या में
इसके प्रदर्शन देश के अनेक नगरों में अलग-अलग भारती भाषाओं में हुए हैं।
कलकत्ता से प्रकाशित बांगला नाट्य पत्रिका ‘नाट्य
दर्पण’ के अगस्त, 1977 अंक में अशोक सरकार द्वारा
’आदिम’ नाम से इसका बंगला अनुवाद प्रकाशित हुआ है।
कन्नण नाट्यकर्मी एम. सी. मूर्ति ने ‘दरिन्दे’ का
कन्नड़ अनुवाद कर इसे रविन्द्र कला क्षेत्र बैंगलोर में सफलतापूर्वक मंचित
किया है। गुजराती और तेलगू में भी इसके प्रदर्शन हुए हैं। इधर पिछले कुछ
समय से मुझे और भारतीय ज्ञानपीठ को इसकी प्रतियाँ अनुपलब्ध होने के
सम्बन्ध में नाट्य प्रेमियों अभिनय कर्म में संलग्न साधकों और शोधार्थियों
के पत्र मिल रहे थे।
इस नये संस्करण के प्रकाशन से इस अभाव की पूर्ति हो रही है। नाट्य समाजमूलक विद्या है। इसके संप्रेषण का अभीष्ट है रसानुभूति। मेरा यह विनम्र प्रयास सिर्फ़ एक नाट्य रचना नहीं, वास्तविक रंगमंच है। मेरा विश्वास है, जब तक अस-मानता और शोषण है, मेरा यह नाटक समसामयिक है।
इस नये संस्करण के प्रकाशन से इस अभाव की पूर्ति हो रही है। नाट्य समाजमूलक विद्या है। इसके संप्रेषण का अभीष्ट है रसानुभूति। मेरा यह विनम्र प्रयास सिर्फ़ एक नाट्य रचना नहीं, वास्तविक रंगमंच है। मेरा विश्वास है, जब तक अस-मानता और शोषण है, मेरा यह नाटक समसामयिक है।
जयपुर
हमीदुल्ला
[ पात्र ]
इस प्रयोगात्मक नौ-पात्रीय नाटक में स्त्री व पुरुष, दो प्रतीक पात्र हैं,
जो विभिन्न अवसरों पर भिन्न-भिन्न भूमिकाओं में आते हैं। इसी तरह तीन और
पात्र, ढोलकिया, हनी और पिगवानवाला, अपनी-अपनी इन मुख्य-भूमिकाओं के
अतिरिक्त अन्य भूमिकाओं में भी हैं। शेष चार पात्र, विक्षिप्त दार्शनिक,
शेर, भालू और लोमड़ी, अपने पात्र एवं उसके चरित्र को स्थापित करने के
हावभाव, बोलचाल और वेशभूषा में।
[ मंच ]
मंच के बीच में डेढ़ फ़ुटी मंच ऊँची और साढ़े तीन फ़ुट×साढ़े
तीन फ़ुट की लकड़ी की एक चौकी, जिसका विभिन्न अवसरों पर पात्रों द्वारा
उपयोग होता है। दर्शकों की ओर से मंच के दायें हिस्से में दो बाजू-विहीन
कुरसियाँ। बायीं ओर एक स्टूल।
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