उपन्यास >> राग दरबारी राग दरबारीश्रीलाल शुक्ल
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मास्टर मोतीराम बेईमान मुन्नू के भतीजे को थोड़ी देर तक घूरते रहे। फिर
उन्होंने साँस खींचकर कहा, "जाने दो !"
उन्होंने खुली हुई किताब पर निगाह गड़ा दी। जब उन्होंने निगाह उठायी तो देखा,
लड़कों की निगाहें उनकी ओर पहले से ही उठी थीं। उन्होंने कहा “क्या बात है ?"
एक लड़का वोला, “तो यही तय रहा कि आटाचक्की से महीने में पाँच सौ रुपया नहीं
पैदा किया जा सकता ?"
"कौन कहता है ?'' मास्टर साहब वोले, “मैंने खुद आटाचक्की से सात-सात सौ रुपया
तक एक महीने में खींचा है। पर बेईमान मुन्नू की वजह से सब चौपट होता जा रहा
है।"
बेईमान मुन्नू के भतीजे ने शालीनता से कहा, "इसका अफ़सोस ही क्या, मास्टर साहब
! यह तो व्यापार है। कभी चित, कभी पट ! कम्पटीशन में ऐसा ही होता है।"
"ईमानदार और बेईमान का क्या कम्पटीशन ? क्या बकते हो ?" मास्टर मोतीराम ने
डपटकर कहा। तब तक कॉलिज का चपरासी उनके सामने एक नोटिस लेकर खड़ा हो गया। नोटिस
पढ़ते-पढ़ते उन्होंने कहा, "जिसे देखो मुआइना करने को चला आ रहा
है...पढ़ानेवाला अकेला, मुआइना करनेवाले दस-दस !"
एक लड़के ने कहा, "बड़ी खराब बात है !"
वे चौंककर क्लास की ओर देखने लगे। बोले, “यह कौन बोला ?"
एक लड़का अपनी जगह से हाथ उठाकर बोला, “मैं मास्टर साहब ! मैं पूछ रहा था कि
आपेक्षिक घनत्व निकालने का क्या तरीक़ा है !"
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