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उपन्यास >> राग दरबारी

राग दरबारी

श्रीलाल शुक्ल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :335
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9648
आईएसबीएन :9788126713967

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मास्टर मोतीराम ने कहा, “आपेक्षिक घनत्व निकालने के लिए उस चीज का वजन और आयतन यानी वॉल्यूम जानना चाहिए-उसके बाद आपेक्षिक घनत्व निकालने का तरीक़ा जानना चाहिए। जहाँ तक तरीके की बात है, हर चीज के दो तरीके होते हैं। एक सही तरीक़ा, एक गलत तरीक़ा। सही तरीके का सही नतीजा निकलता है, गलत तरीके का गलत नतीजा। इसे एक उदाहरण देकर समझाना जरूरी है। मान लो तुमने एक आटाचक्की लगायी। आटाचक्की की बढ़िया नयी मशीन है, खूब चमाचम रखी है, जमकर ग्रीज लगायी गई है। इंजन नया है, पट्टा नया है। सबकुछ है, पर बिजली नहीं है, तो क्या नतीजा निकलेगा ?"

पहले बोलनेवाले लड़के ने कहा, "तो डीजल इंजिन का इस्तेमाल करना पड़ेगा।
मुन्नू चाचा ने किया था !"

मास्टर मोतीराम बोले, “यहाँ अकेले मुन्नू चाचा ही के पास अक्ल नहीं है। इस क़स्वे में सबसे पहले डीजल इंजिन कौन लाया था ? जानता है कोई ?" लड़कों ने हाथ उठाकर कोरस में कहा, “आप ! आप लाये थे !" मास्टर साहब ने सन्तोष के साथ मुन्नू के भतीजे की ओर देखा और हिकारत से बोले, “सुन लिया। बेईमान मुन्नू ने तो डीजल इंजिन मेरी देखादेखी चलाया था। पर मेरी चक्की तो यह कॉलिज खुलने से पहले से चल रही थी। मेरी ही चक्की पर कॉलिज की इमारत के लिए हर आटा पिसवानेवाले से सेर-सेर भर आटे का दान लिया गया। मेरी ही चक्की में पिसकर वह आटा शहर में बिकने के लिए गया। मेरी ही चक्की पर कॉलिज की इमारत का नक्शा बना और मैनेजर काका ने कहा कि, 'मोती, कॉलिज में तुम रहोगे तो मास्टर ही, पर असली प्रिंसीपली तुम्हीं करोगे।' सबकुछ तो मेरी चक्की पर हुआ और अब गाँव में चक्की है तो बेईमान मुन्नू की ! मेरी चक्की कोई चीज ही न हुई !"

लड़के इत्मीनान से सुनते रहे। यह बात वे पहले भी सुन चुके थे और किसी भी समय सुनने के लिए तैयार रहते थे। उन पर कोई खास असर नहीं पड़ा। पर मुन्नू के भतीजे ने कहा, "चीज तो मास्टर साहब आपकी भी बढ़िया है और मुन्नू चाचा की भी पर आपकी चक्की पर धान कूटनेवाली मशीन ओवरहालिंग माँगती है। धान उसमें ज्यादा टूटता है।"

मास्टर मोतीराम ने आपसी तरीके से कहा, “ऐसी बात नहीं है। मेरे-जैसी धान की मशीन तो पूरे इलाके में नहीं है। पर बेईमान मुन्नू कुटाई-पिसाई का रेट गिराता जा रहा है। इसीलिए लोग उधर दौड़ते हैं। हर हिन्दुस्तानी की यही हालत है। दो पैसे की जहाँ किफ़ायत हो, वह उधर ही मुँह मारता है।"

“यह तो सभी जगह होता है," लड़के ने तर्क किया।

“सभी जगह नहीं, हिन्दुस्तान ही में ऐसा होता है। हाँ..." उन्होंने कुछ सोचकर कहा, “तो रेट गिराकर अपना घाटा दूसरे लोग तो दूसरी तरह से-गाहकों का आटा चुराकर-पूरा कर लेते हैं। अब मास्टर मोतीराम जिस शख्स का नाम है, वह सबकुछ कर सकता है. यही नहीं कर सकता।"

एक लड़के ने कहा, “आपेक्षिक घनत्व निकालने का तरीक़ा क्या निकला ?"
वे जल्दी से बोले, “वही तो बता रहा था।"

उनकी निगाह खिड़की के पास, सड़क पर ईख की गाड़ियों से तीन फीट ऊपर जाकर, उससे भी आगे क्षितिज पर अटक गई। कुछ साल पहले के चिरन्तन भावाविष्ट पोजवाले कवियों की तरह वे कहते रहे, “मशीन तो पूरे इलाके में वह एक थी; लोहे की थी, पर शीशे-जैसी झलक दिखाती थी... ?"

अचानक उन्होंने दर्जे की ओर सीधे देखकर कहा, “तुमने क्या पूछा था ?"

लड़के ने अपना सवाल दोहराया, पर उसके पहले ही उनका ध्यान दूसरी ओर चला गया था। लड़कों ने भी कान उठाकर सुना, बाहर ईख चुरानेवालों और ईख बचानेवालों की गालियों के ऊपर, चपरासी के ऊपर पड़नेवाली प्रिंसिपल की फटकार के ऊपर-म्यूजिक-क्लास से उठनेवाली हारमोनियम की म्याँव-म्याँव के ऊपर-अचानक 'भक्-भक्-भक्' की आवाज होने लगी थी। मास्टर मोतीराम की चक्की चल रही थी। यह उसी की आवाज थी। यही असली आवाज थी। अन्न-वस्त्र की कमी कीचीख-पुकार, दंगे-फसाद के चीत्कार, इन सबके तर्क के ऊपर सच्चा नेता जैसे सिर्फ़ आत्मा की आवाज सुनता है, और कुछ नहीं सुन पाता; वही मास्टर मोतीराम के साथ हुआ। उन्होंने और कुछ नहीं सुना। सिर्फ़ "भक्-भक्-भक्' सुना।

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