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उपन्यास >> राग दरबारी

राग दरबारी

श्रीलाल शुक्ल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :335
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9648
आईएसबीएन :9788126713967

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एक लड़के ने कहा, “मास्टर साहब, आपेक्षिक घनत्व किसे कहते हैं ?"
वे बोले, “आपेक्षिक घनत्व माने रिलेटिव डेंसिटी।"
एक दूसरे लड़के ने कहा, “अब आप, देखिए, साइंस नहीं अंग्रेजी पढ़ा रहे हैं।"
वे बोले, “साइंस साला अंग्रेजी के बिना कैसे आ सकता है ?"

लड़कों ने जवाब में हँसना शुरू कर दिया। हँसी का कारण हिन्दी-अंग्रेजी की बहस नहीं, 'साला' का मुहावरेदार प्रयोग था।

वे बोले, “यह हँसी की बात नहीं है।"

लड़कों को यक़ीन न हुआ। वे और जोर से हँसे। इस पर मास्टर मोतीराम खुद उन्हीं के साथ हँसने लगे। लड़के चुप हो गए।

उन्होंने लड़कों को माफ़ कर दिया। बोले, “रिलेटिव डेंसिटी नहीं समझते हो तो आपेक्षिक घनत्व को यों-दूसरी तरकीब से, समझो। आपेक्षिक माने किसी के मुक़ावले का। मान लो, तुमने एक आटाचक्की खोल रखी है और तुम्हारे पड़ोस में तुम्हारे पड़ोसी ने दूसरी आटाचक्की खोल रखी है। तुम महीने में उससे पाँच सौ रुपया पैदा करते हो और तुम्हारा पड़ोसी चार सौ। तो तुम्हें उसके मुक़ावले ज्यादा फ़ायदा हुआ। इसे साइंस की भाषा में कह सकते हैं कि तुम्हारा आपेक्षिक लाभ ज्यादा है। समझ गए ?"

एक लड़का बोला, “समझ तो गया मास्टर साहब, पर पूरी बात शुरू से ही ग़लत है। आटाचक्की से इस गाँव में कोई भी पाँच सौ रुपया महीना नहीं पैदा कर सकता।"

मास्टर मोतीराम ने मेज पर हाथ पटककर कहा, "क्यों नहीं कर सकता ! करनेवाला क्या नहीं कर सकता !"

लड़का इस बात से और बात करने की कला से प्रभावित नहीं हुआ। बोला, “कुछ नहीं कर सकता। हमारे चाचा की चक्की धकापेल चलती है, पर मुश्किल से दो सौ रुपया महीना पैदा होता है।"

“कौन है तुम्हारा चाचा ?" मास्टर मोतीराम की आवाज जैसे पसीने से तर हो गई।
उन्होंने उस लड़के को ध्यान से देखते हुए पूछा, “तुम उस बेईमान मुन्नू के भतीजे तो नहीं हो ?"
लड़के ने अपने अभिमान को छिपाने की कोशिश नहीं की। लापरवाही से वोला, "और नहीं तो क्या ?"

बेईमान मुन्नू बड़े ही बाइज्जत आदमी थे। अंग्रेजों में, जिनके गुलावों में शायद ही कोई खुशबू हो, एक कहावत है : गुलाब को किसी भी नाम से पुकारो, वह वैसा ही खुशबूदार बना रहेगा। वैसे ही उन्हें भी किसी भी नाम से क्यों न पुकारा जाए, बेईमान मुन्नू उसी तरह इत्मीनान से आटाचक्की चलाते थे, पैसा कमाते थे, बाइज्जत आदमी थे। वैसे बेईमान मुन्नू ने यह नाम खुद नहीं कमाया था। यह उन्हें विरासत में मिला था। बचपन से उनके बापू उन्हें प्यार के मारे बेईमान कहते थे, माँ उन्हें प्यार के मारे मुन्नू कहती थी। पूरा गाँव अब उन्हें बेईमान मुन्नू कहता था। वे इस नाम को उसी सरलता से स्वीकार कर चुके थे, जैसे हमने जे. वी. कृपलानी के लिए आचार्यजी, जे. एल. नेहरू के लिए पण्डितजी या एम. के. गांधी के लिए महात्माजी बतौर नाम स्वीकार कर लिया है।

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