लोगों की राय

उपन्यास >> राग दरबारी

राग दरबारी

श्रीलाल शुक्ल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :335
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9648
आईएसबीएन :9788126713967

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

221 पाठक हैं


प्रिंसिपल साहब का दिल इतने जोर से धड़का कि लगा, उछलकर फेफड़े में घुस जाएगा। वे वोले, “ऐसी बात अब कभी भूलकर भी न कहना रुप्पन बाबू ! ये खन्ना- वन्ना चिल्लाने लगेंगे कि तुम उनके साथ हो। यह शिवपालगंज है। मजाक में भी सोचकर वोलना चाहिए।"

"मैं तो सच्ची बात कहता हूँ। खैर, देखा जाएगा।" कहते-कहते रुप्पन बाबू आगे वढ़ गए।

प्रिंसिपल साहब तेजी से अपने कमरे में आ गए। ठण्डक थी, पर उन्होंने कोट उतार दिया। शिक्षा-सम्बन्धी सामानों की सप्लाई करनेवाली किसी दुकान का एक कैलेण्डर ठीक उनकी नाक के सामने दीवार पर टँगा हुआ था जिसमें नंगे बदन पर लगभग एक पारदर्शक साड़ी लपेटे हुए कोई फिल्म-एक्ट्रैस एक आदमी की ओर लड्डू-जैसा बढ़ा रही थी। आदमी चेहरे पर बड़े-बड़े बाल बढ़ाये हुए, एक हाथ आँखों के सामने उठाये, ऐसा मुँह बना रहा था जैसे लड्डू खाकर उसे अपच हो गया हो। ये मेनका और विश्वामित्र थे। वे इन्हीं को थोड़ी देर देखते रहे, फिर घण्टी बजाने की जगह जोर से चिल्लाकर उन्होंने चपरासी को बुलाया और कहा, “खन्ना को बुलाओ।"

चपरासी ने रहस्य के स्वर में कहा, “फ़ील्ड की तरफ़ गए हैं। मालवीयजी साथ में हैं।"

प्रिंसिपल ने उकताकर सामने रखे हुए क़लमदान को घसीटकर दूर रख दिया। क़लमदान भी नमूने के तौर पर किसी ऐजुकेशन एम्पोरियम से मुफ्त में मिला था और जिस तरह प्रिंसिपल साहब ने उसे दूर पर पटका था, उससे लगता था, उस साल एम्पोरियम का कोई भी माल कॉलिज में नहीं खरीदा जाएगा। पर प्रिंसिपल साहब का मतलब यह नहीं था; वे इस वक्त चपरासी को सिर्फ यह बताना चाहते थे कि वे उसकी खुफ़िया रिपोर्ट अभी सुनने को तैयार नहीं हैं। उन्होंने कड़ककर कहा, “मैं कहता हूँ, खन्ना को इसी वक्त बुलाओ।"

चपरासी गाढ़े का साफ़ कुरता और साफ़ धोती पहने हुए था। उसके पैरों में खड़ाऊँ और माथे पर तिलक था। उसने शान्तिपूर्वक कहा, “जा रहा हूँ। खन्ना को बुलाये लाता हूँ। इतना नाराज क्यों हो रहे हैं ?"

प्रिंसिपल साहब दाँत पीसते हुए तिरछी निगाहों से मेज पर रखे हुए टीन के एक टुकड़े को देखते रहे। इस पर पॉलिश करके एक लाल गुलाब का फूल बना दिया गया था। नीचे तारीख और महीना बताने के लिए कैलेण्डर लगाया गया था। इसे शराव बनाने की एक प्रसिद्ध फ़र्म ने पं. जबाहरलाल नेहरू की यादगार में बनवाया था और मुफ्त में चारों दिशाओं में इस विश्वास के साथ भेजा था कि जहाँ यह कैलेण्डर जाएगा वहाँ की जनता पं. जवाहरलाल नेहरू के आदर्शों को और इस फर्म की शराब को कभी न भूलेगी। पर इस वक्त कैलेण्डर का प्रिंसिपल साहब पर कोई असर नहीं हुआ। पं. नेहरू के लाल गुलाव ने उन्हें शान्ति नहीं दी; न फेनदार बियर की कल्पना ने उनकी आँखों को मूंदने के लिए मजबूर किया। वे दाँत पीस रहे थे और पीसते रहे। अचानक, जिस वक्त चपरासी का खड़ाऊँ दरवाजे की चौखट पार कर रहा था, उन्होंने कहा, "रामाधीन इन्हें वाइस-प्रिंसिपली दिलायेंगे ! टुच्चे कहीं के !"

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book