उपन्यास >> राग दरबारी राग दरबारीश्रीलाल शुक्ल
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वेदान्त के अनुसार-जिसका हवाला वैद्यजी आयुर्वेद के पर्याय के रूप में दिया
करते थे-गुटबन्दी परात्मानुभूति की चरम दशा का एक नाम है। उसमें प्रत्येक
'तू', 'मैं'. को और प्रत्येक 'मैं', 'तू'-को अपने से ज्यादा अच्छी स्थिति में
देखता है। वह उस स्थिति को पकड़ना चाहता है। 'मैं' 'तू' और 'तू' 'मैं' को
मिटाकर 'मैं' की जगह 'तू' और 'तू' की जगह 'मैं' बन जाना चाहता है वेदान्त
हमारी परम्परा है और चूँकि गुटबन्दी का अर्थ वेदान्त से खींचा जा सकता है,
इसलिए गुटबन्दी भी हमारी परम्परा है, और दोनों हमारी सांस्कृतिक परम्पराएँ
हैं। आजादी मिलने के वाद हमने अपनी बहुत-सी सांस्कृतिक परम्पराओं को फिर से
खोदकर निकाला है। तभी हम हवाई जहाज से यूरोप जाते हैं, पर यात्रा का
प्रोग्राम ज्योतिपी से बनबाते हैं; फॉरेन ऐक्सचेंज और इनकमटैक्स की दिक्क़तें
दूर करने के लिए बाबाओं का आशीर्वाद लेते हैं, स्कॉच व्हिस्की पीकर भगन्दर
पालते हैं और इलाज के लिए योगाश्रमों में जाकर साँस फुलाते हैं, पेट सिकोड़ते
हैं। उसी तरह विलायती तालीम में पाया हुआ जनतन्त्र स्वीकार करते हैं और उसको
चलाने के लिए अपनी परम्परागत गुटबन्दी का सहारा लेते हैं। हमारे इतिहास
में-चाहे युद्धकाल रहा हो, या शान्तिकाल- राजमहलों से लेकर खलिहानों तक
गुटबन्दी द्वारा 'मैं' को 'तू' और 'तू' को 'मैं' बनाने की शानदार परम्परा रही
है। अंग्रेजी राज में अंग्रेजों को बाहर भगाने के झंझट में कुछ दिनों के लिए
हम उसे भूल गए थे। आजादी मिलने के बाद अपनी और परम्पराओं के साथ इसको भी हमने
बढ़ावा दिया है। अब हम गुटबन्दी को तू-तू, मैं-मैं, लात-जूता , साहित्य और
कला आदि सभी पद्धतियों से आगे बढ़ा रहे हैं। यह हमारी सांस्कृतिक आस्था है।
यह वेदान्त को जन्म देनेवाले देश की उपलब्धि है। यही, संक्षेप में, गुटबन्दी
का दर्शन, इतिहास और भूगोल है।
इन मूल कारणों के साथ कॉलिज में गुटबन्दी का एक दूसरा कारण लोगों का यह विचार
था कि कुछ होते रहना चाहिए। यहाँ सिनेमा नहीं है, होटल नहीं है, कॉफ़ी-हाउस
नहीं, मारपीट, छुरेबाजी, सड़क की दुर्घटनाएँ, नये-नये फ़ैशनों की लड़कियाँ,
नुमायशें, गाली-गलौजवाली सार्वजनिक सभाएँ-ये भी नहीं हैं। लोग कहाँ जाएँ ?
क्या देखें ? क्या सुनें ? इसलिए कुछ होते रहना चाहिए।
चार दिन हुए, कॉलिज में एक प्रेम-पत्र पकड़ा गया था जो एक लड़के ने लड़की को
लिखा था। लड़के ने चालाकी दिखायी थी; पत्र पढ़ने से लगता था कि वह सवाल नहीं,
लड़की के पत्र का जवाव है; पर चालाकी कारगर नहीं हुई। लड़का डाँटा गया, पीटा
गया, कॉलिज से निकाला गया, फिर उसके बाप के इस आश्वासन पर कि लड़का दोबारा
प्रेम न करेगा, और इस वादे पर कि कॉलिज के नये ब्लाक के लिए पचीस हजार ईंटें
दे दी जाएँगी, कॉलिज में फिर से दाखिल कर लिया गया। कुछ हुआ भी तो उसका असर
चार दिन से ज्यादा नहीं रहा। उससे पहले एक लड़के के पास देसी कारतूसी तमंचा
बरामद हुआ था। तमंचा बिना कारतूस का था और इतना भोंडा बना था कि इस देश के
लोहारों की कारीगरी पर रोना आता था। पर इन कमजोरियों के होते हुए भी कॉलिज
में पुलिस आ गई और लड़के को और वैद्यजी का आदमी होने के बावजूद क्लर्क साहब
को, लेकर थाने पर चली गई। लोग प्रतीक्षा करते रहे कि कुछ होनेवाला है और लगा
कि चार-छः दिन तक कुछ होता रहेगा। पर शाम तक पता चला कि जो निकला था वह तमंचा
नहीं था, बल्कि लोहे का एक छोटा-सा टुकड़ा था, और क्लर्क साहब थाने पर पुलिस
के कहने से नहीं बल्कि अपने मन से तफरीह करने के लिए चले गए थे और लड़का
गुण्डागिरी नहीं कर रहा था वल्कि बाँसुरी बहुत अच्छी बजाता था। शाम को जब
क्लर्क तफ़रीह करता हुआ और लड़का बाँसुरी बजाता हुआ थाने से बाहर निकला, तो
लोगों की तबीयत गिर गई। वे समझ गए कि यह तो कुछ भी नहीं हुआ और उनके सामने
फिर वही शाश्वत प्रश्न पैदा हो गया : अब क्या हो ?
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