उपन्यास >> राग दरबारी राग दरबारीश्रीलाल शुक्ल
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इसी को 'ठाँय' कहते हैं। इसी के साथ निशी और निक्कू फिलासफी की हजार मीटरवाली
दौड़ पर निकल पड़ते हैं। अब निशी की 'ब्रा' भी जमीन पर गिर जाती है, निक्कू
की टाई और कमीज हवा में उड़ जाती है। गिरते-पड़ते, एक-दूसरे पर लोटते-पोटते
वे मैदान के दूसरे छोर पर लगे हुए फीते को सत्य समझकर किसी तरह यहाँ पहुँचते
हैं; तब पता चलता है, वह सत्य नहीं है। फिर संयोग-शृंगार, जलते हुए होंठ।
फिलासफी की मार । थोड़ी ही देर में वे मैदान छोड़कर जंगल में आ जाते हैं और
पत्थरों से छिलते हुए, काँटों से बिंधे, नंगे बदन, झाँक-झाँककर प्रत्येक
झाड़ी में देखते हैं और इस तरह नंगापन, सुबुक-सुबुक, चूमाचाटी, व्याख्यान आदि
के माहौल में उस खरगोश का पीछा करते रहते हैं जिसका कि नाम सत्य है।
यह फिलासफी लगभग सभी महत्त्वपूर्ण काव्यों और कथाओं में होती है और इसीलिए
ठीक नहीं कि इस उपन्यास के पाठक भी काफ़ी देर से फिलासफी के एक लटके का
इन्तजार कर रहे हों और सोच रहे हों, हिन्दी का यह उपन्यासकार इतनी देर से और
सब तो कह रहा है, फिलासफी क्यों नहीं कहता ? क्या मामला है ? यह फ्रॉड तो
नहीं है ?
यह सही है कि 'सत्य' 'अस्तित्व' आदि शब्दों के आते ही हमारा कथाकार चिल्ला
उठता है, “सुनो भाइयो, यह क़िस्सा-कहानी रोककर मैं थोड़ी देर के लिए तुमको
फिलासफी पढ़ाता हूँ, ताकि तुम्हें यक़ीन हो जाय कि वास्तव में मैं फिलासफर
था, पर बचपन के कुसंग के कारण यह उपन्यास (या कविता) लिख रहा हूँ। इसलिए हे
भाइयो, लो, यह सोलह-पेजी फिलासफी का लटका; और अगर मेरी किताव पढ़ते-पढ़ते
तुम्हें भ्रम हो गया हो कि मुझे औरों-जैसी फिलासफी नहीं आती, तो उस भ्रम को
इस भ्रम से काट दो...।"
तात्पर्य यह है, क्योंकि फिलासफी बघारना प्रत्येक कवि और कथाकार के लिए
अपने-आपमें एक 'वैल्यू' है, क्योंकि मैं कथाकार हूँ, क्योंकि 'सत्य',
'अस्तित्व' आदि की तरह ‘गुटबन्दी'-जैसे एक महत्त्वपूर्ण शब्द का जिक्र आ चुका
है, इसीलिए सोलह पृष्ठ के लिए तो नहीं, पर एक-दो पृष्ठ के लिए अपनी कहानी
रोककर में भी पाठकों से कहना चाहूँगा कि सनो-सुनो हे भाइयो, वास्तव में तो
मैं एक फिलासफर हूँ, पर वचपन के कुसंग के कारण...।
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