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उपन्यास >> राग दरबारी

राग दरबारी

श्रीलाल शुक्ल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :335
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9648
आईएसबीएन :9788126713967

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“तुम वहाँ क्या कर रहे थे ?'
डायरेक्टर ने अनमने ढंग से कहा, "मैं थककर एक पेड़ के नीचे आराम कर रहा था।"
वैद्यजी ने कहा, “उसी समय पुलिस को सूचना देनी थी।"

डायरेक्टर थोड़ी देर सोचते रहे। फिर सोच-समझकर बोले, “मैंने सोचा, कहीं रामसरूप यह जान न जाए कि उसे देख लिया गया है। इसीलिए पुलिस को इत्तला नहीं दी।"

गबन का अभियुक्त बम्बई में नहीं, बल्कि पन्द्रह मील की दूरी पर ही है और तेल-मालिश कराने के लिए उसका सिर अब भी कन्धों पर सही-सलामत रखा है, इस सूचना ने वैद्यजी को उलझन में डाल दिया। डायरेक्टरों की बैठक बुलाना जरूरी हो गया।

पूरी बात उन्होंने खाली-पेट सुनी थी, उसे भंग पीकर भी सुना जा सके इसलिए बैठक का समय सायंकाल के लिए रखा गया।

सनीचर पृथ्वी पर वैद्यजी को एकमात्र आदमी और स्वर्ग में हनुमानजी को एकमात्र देवता मानता था और दोनों से अलग-अलग प्रभावित था। हनुमानजी सिर्फ़ लँगोटा लगाते हैं, इस हिसाब से सनीचर भी सिर्फ अण्डरवीयर से काम चलाता था। जिस्म पर बनियान वह तभी पहनता जब उसे सज-धजकर कहीं के लिए निकलना होता। यह तो हुआ हनुमानजी का प्रभाव; वैद्यजी के प्रभाव से वह किसी भी राह-चलते आदमी पर कुत्ते की तरह भौंक सकता था, पर वैद्यजी के घर का कोई कुत्ता भी हो, तो उसके सामने वह अपनी दुम हिलाने लगता था। यह दूसरी बात है कि वैद्यजी के घर पर कुत्ता नहीं था और सनीचर के दुम नहीं थी।

उसे शहर की हर चीज में, और इसलिए रंगनाथ में काफ़ी दिलचस्पी थी। जब रंगनाथ दरवाजे पर होता, सनीचर भी उसके आसपास देखा जा सकता था। आज भी यही हुआ। वैद्यजी कोऑपरेटिव यूनियन की बैठक में गए थे। दरवाजे पर सिर्फ़ रंगनाथ और सनीचर थे। सूरज डूबने लगा था और जाड़े की शाम के साथ हर घर से उठनेवाला कसैला धुआँ मकानों के ऊपर लटक गया था।

कोई रास्ते पर खट-खट करता हुआ निकला। किसी भी शारीरिक विकार के लिए हम भारतीयों के मन में जो सात्त्विक घृणा होती है, उसे थूककर बाहर निकालते हुए सनीचर ने कहा, “लँगड़वा जा रहा है, साला !'' कहकर वह उछलता हुआ बाहर चबूतरे पर आ गया और वहाँ मेंढक की तरह बैठ गया।

रंगनाथ ने पुकारकर कहा, “लंगड़ हो क्या ?"
वह कुछ आगे निकल गया था। आवाज सुनकर वह वहीं रुक गया और पीछे मुड़कर देखते हुए बोला, “हाँ बापू, लंगड़ ही हूँ।"
"मिल गई नक़ल ?"

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