उपन्यास >> राग दरबारी राग दरबारीश्रीलाल शुक्ल
|
221 पाठक हैं |
उस सिपाही ने कहा, “हुजूर ! वेमतलव झंझट में पड़ने से क्या फ़ायदा ? अभी गाँव
चलकर इसे इसके घर में ढकेल आएँगे। इसे हवालात कैसे भेजा जा सकता है ? वैद्यजी
का आदमी है।"
दारोगाजी नौकरी में नये थे, पर सिपाहियों का मानवतावादी दृष्टिकोण अब वे एकदम
समझ गए। वे कुछ नहीं बोले। सिपाहियों से थोड़ा पीछे हटकर वे फिर अँधेरे,
हल्की टण्डक, नगरवासिनी प्रिया और 'हाय मेरा दिल' से सन्तोष खींचने की कोशिश
करने लगे।
9
कोऑपरेटिव यूनियन का गबन बड़े ही सीधे-सादे ढंग से हुआ था। सैकड़ों की
संख्या में रोज होते रहनेवाले गवनों की अपेक्षा इसका यही सौन्दर्य था कि यह
शुद्ध गबन था, इसमें ज्यादा घुमाव-फिराव न था। न इसमें जाली दस्तखतों की
जरूरत पड़ी थी, न फ़र्जी हिसाव बनाया गया था, न नकली बिल पर रुपया निकाला गया
था। ऐसा गबन करने और ऐसे गबन को समझने के लिए किसी टेक्नीकल योग्यता की नहीं,
केवल इच्छा- शक्ति की जरूरत थी।
कोऑपरेटिव यूनियन का एक बीजगोदाम था जिसमें गेहूँ भरा हुआ था। एक दिन यूनियन
का सुपरवाइज़र रामसरूप दो ट्रक साथ में लेकर बीजगोदाम पर आया। ट्रकों पर
गेहूँ के बोरे लाद लिये गए और दूर से देखनेवाले लोगों ने समझा कि यह तो
कोऑपरेटिव में रोज़ होता ही रहता है। उन्हें पड़ोस के दूसरे बीजगोदाम में
पहुँचाने के लिए रामसरूप खुद एक ड्राइवर की बगल में बैठ गया और ट्रक चल पड़े।
सड़क से एक जगह कच्चे रास्ते पर मुड़ जाने से पाँच मील आगे दूसरा बीजगोदाम
मिल जाता; पर ट्रक उस जगह नहीं मुड़े, वे सीधे चले गए। यहीं से गबन शुरू हो
गया। ट्रक सीधे शहर की गल्लामण्डी में पहुँच गए। वहाँ गेहूँ के बोरे उतारकर
दोनों ट्रक गबन के बारे में सबकुछ भूल गए और दूसरे दिन आस-पास के क्षेत्र में
पूर्ववत् कोयला और लकड़ी ढोने लगे। रामसरूप का उसके बाद काफ़ी दिन तक पता
नहीं चला और लोगों ने विश्वास कर लिया कि गेहूँ बेचकर, कई हज़ार रुपये जेब
में भरकर वह बम्बई की ओर भाग गया है। यह पूरी घटना स्थानीय थाने में गबन की
एक रिपोर्ट की शक्ल में आ गई और बक़ौल वैद्यजी के, 'काँटा-सा निकल गया।'
पर यूनियन के एक डायरेक्टर ने कल शहर जाकर एक ऐसा दृश्य देखा जिससे पता चला
कि रामसरूप ने वे रुपये खर्च करने के लिए बम्बई को नहीं, अपने इलाके के शहर
को ही प्राथमिकता दी है। डायरेक्टर साहब यों ही, सिर्फ़ शहर देखने के मतलब
से, शहर देखने गए थे। इन अबसरों पर और कार्यक्रमों के साथ उनका कम-से-कम एक
स्थायी कार्यक्रम होता था-किसी पार्क में पहुँचना, किसी पेड़ के नीचे बेंच पर
बैठना, लइया-चना चबाना, रंगीन फूलों और लड़कियों को ध्यानपूर्वक देखना और
किसी कम-उम्र छोकरे से सिर पर तेल-मालिश कराना। जब वे इस कार्यक्रम की आखिरी
मद पर पहुँचे तो एक घटना हुई। वे उस समय पेड़ के नीचे बेंच पर बैठे थे, उनकी
आँखें मुँदी हुई थी और उनके सिर पर छोकरे की पतली और मुलायम उँगलियाँ
‘तिड्-तिड्- तिड्' की आवाज निकाल रही थीं। लड़का उल्लास के साथ उनके बालों पर
तबले के कुछ टेढ़े-मेढ़े वोल निकाल रहा था और वे आँखें मूंदे अफ़सोस के साथ
सोच रहे थे थे कि शायद वह तेल-मालिश का कार्यक्रम जल्द ही खत्म कर देगा। एक
बार उन्होंने आँख खोलकर पीछे की ओर गरदन घुमाने की कोशिश की, पर तेल-मालिश का
असर-उसमें इतनी अफ़सरी आ गई थी कि वह घूमी ही नहीं। अतः उन्होंने लड़के का
मुँह तो नहीं देखा, जो कुछ सामने था उसे ही देखकर सन्तोष करना चाहा।
उन्होंने देखा, सामने एक पेड़ था और उसके नीचे बेंच पर रामसरूप सुपरवाइजर
वैठा था। वह भी एक लड़के से सिर पर तेल-मालिश करा रहा था और ‘तिड्-तिड्-तिड्'
की सुखपूर्ण अनुभूति में खोया हुआ था। दोनों पक्ष उस समय परमहंसों के भाव से
अपने-अपने जगत में तल्लीन थे। शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व के लिए यह आदर्श स्थिति
थी अतः उन्होंने एक-दूसरे के मामले में हस्तक्षेप नहीं किया। लगभग पन्द्रह
मिनट वे अपनी-अपनी बेंच पर अच्छे पड़ोसियों की तरह बैठे हुए एक-दूसरे को
देखकर भी अनदेखा करते रहे। फिर देह तोड़कर दोनों पक्ष उठ खड़े हुए और
अपने-अपने मालिशकर्ता को यथोचित पारिश्रमिक देकर, उन्हें दोबारा वहीं मिलने
के लिए प्रोत्साहित करके, पंचशील के सिद्धान्तों के अनुसार वे अपने-अपने
रास्ते लग गए।
शिवपालगंज की ओर लौटते समय डायरेक्टर को जान पड़ने लगा कि मालिश के सुख के
पीछे उन्होंने कोऑपरेटिव आन्दोलन के साथ विश्वासघात किया है। उन्हें याद आया
कि रामसरूप फ़रार है और पुलिस उसकी तलाश में है। अगर वे रामसरूप को पकड़वा
दें तो गबन का मुक़दमा चल निकलता। शायद उनका नाम अखबार में भी छपता। यह सब
सोचकर वे दुखी हुए। उनकी आत्मा उनको कुरेदने लगी। अतः वापस आते ही आत्मा के
सन्तोष के लिए वे वैद्यजी से मिले और हिंग्वाष्टक चूर्ण की एक पुड़िया फाँककर
उनसे बोले, “मुझे आज पार्क में ऐसा आदमी दिखायी दिया था जो बिलकुल
रामसरूप-जैसा था।"
वैद्यजी ने कहा, “होगा। कुछ आदमियों की आकृतियाँ एक-सी होती हैं।" डायरेक्टर
को लगा कि इतने से उनकी आत्मा उनका पीछा न छोड़ेगी, थोड़ी देर इधर-उधर देखकर
उन्होंने कहा, "मैंने तभी सोचा था कि हो-न-हो, यह रामसरूप ही है।" वैद्यजी ने
डायरेक्टर पर अपनी आँखें गड़ा दीं। उन्होंने फिर कहा, “रामसरूप ही था। मैंने
सोचा कि यह साला यहाँ क्या कर रहा है। मालिश करा रहा था।"
|