उपन्यास >> राग दरबारी राग दरबारीश्रीलाल शुक्ल
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रंगनाथ के इस सवाल का जवाब सनीचर ने दिया, “नक़ल नहीं, इन्हें मिलेगा सिकहर"।
उसी में एक टाँग लटकाकर झूला करेंगे।"
लंगड़ पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। वहीं से उसने पुकारकर कहा, “नक़ल तो नहीं
मिली बापू, आज नोटिस-बोर्ड पर ऐतराज छपा है।"
“क्या हुआ ? फिर से फ़ीस कम पड़ गई क्या ?"
"फ़ीस नहीं बापू," वह अपनी बात को सुनाने के लिए चिल्ला रहा था, "इस बार
मुक़दमे के पते में कुछ गलती है। प्रार्थी के दस्तखत गलत खाने में हैं। तारीख
के ऊपर दो अंक एक में मिल गए हैं। एक जगह कुछ कटा है, उस पर दस्तखत नहीं हैं।
बहुत गलती निकाली गई है।"
रंगनाथ ने कहा, "वे दफ़्तरवाले बड़े शरारती हैं। कैसी-कैसी गलतियाँ निकालते
हैं !"
जैसे गाँधीजी अपनी प्रार्थना-सभा में समझा रहे हों कि हमें अंग्रेजों से घृणा
न करनी चाहिए, उसी वजह पर लंगड़ ने सिर हिलाकर कहा, "नहीं बापू, दफ़्तरवाले
तो अपना काम करते हैं। सारी गड़बड़ी अर्जीनवीस ने की है। विद्या का लोप हो
रहा है। नये-नये अर्जीनवीस गलत-फ़लत लिख देते हैं।"
रंगनाथ ने मन में इतना तो मंजूर कर लिया कि विद्या का लोप हो रहा है, पर
लंगड़ के बताए हुए कारण से वह सहमत नहीं हो सका। वह कुछ कहने जा रहा था, तब
तक लंगड़ ने जोर से कहा, “कोई बात नहीं बापू, कल दरख्वास्त ठीक हो जाएगी।" वह
खट-खट-खट करता चला गया। सनीचर ने कहा, “जाने किस-किस देश के बाँगड़ शिवपालगंज
में इकट्ठा हो रहे हैं।"
रंगनाथ ने उसे समझाया, “सब जगह ऐसा ही है। दिल्ली का भी यही हाल है।" वह
सनीचर को दिल्ली के किस्से सुनाने लगा। जैसे भारतीयों की बुद्धि अंग्रेजी की
खिड़की से झाँककर संसार का हालचाल देती है, वैसे ही सनीचर की बुद्धि रंगनाथ
की खिड़की से झाँकती हुई दिल्ली के हालचाल लेने लगी। दोनों कुछ देर उसी में
अटके रहे। अँधेरा हो चला था, पर अभी हालत ऐसी नहीं थी कि आँख के सामने खड़े
हुए आदमी और जानवर में तमीज न की जा सके। वैद्यजी की बैठक में एक लालटेन लटका
दी गई। सामने रास्ते से तीन नौजवान जोर-जोर से ठहाके लगाते हुए निकले। उनकी
बातचीत किसी एक ऐसी घटना के बारे में होती रही जिसमें दोपहर,' 'फण्टूश,
'चकाचक,' 'ताश' और 'पैसे' का जिक्र उसी बहुतायत से हुआ जो प्लानिंग कमीशन के
अहलकारों में 'इवैल्युएशन,' 'कोआर्डिनेशन,' 'डवटेलिंग' या साहित्यकारों में
‘परिप्रेक्ष्य, 'आयाम,' 'युगबोध,' सन्दर्भ' आदि कहने में पायी जाती है। कुछ
कहते-कहते तीनों नौजवान बैठक से आगे जाकर खड़े हो गए। सनीचर ने कहा, “बद्री
भैया इन जानवरों को कुश्ती लड़ना सिखाते हैं। समझ लो, बाघ के हाथ में बन्दूक
दे रहे हैं। वैसे ही सालों के मारे लोगों का रास्ता चलना मुश्किल है।
दाँव-पेंच सीख गए तो गाँव छोड़ देना होगा।" सिकहर रस्सी का बुना हुआ एक झोला
होता है। अबध के देहातों में इसे छत से लटका देते हैं। प्रायः उस पर दूध, दही
आदि की हाँडियाँ रखी जाती हैं।
अचानक नौजवानों ने एक विशेष प्रकार का ठहाका लगाया। सब वर्गों की हंसी और
ठहाके अलग-अलग होते हैं। कॉफ़ी-हाउस में बैठे हुए साहित्यकारों का ठहाका कई
जगहों से निकलता है, वह किसी के पेट की गहराई से निकलता है, किसी के गले,
किसी के मुँह से और उनमें से एकाध ऐसे भी रह जाते हैं जो सिर्फ सोचते हैं कि
ठहाका लगाया क्यों गया है। डिनर के बाद कॉफ़ी पीते हुए, छके हुए अफ़सरों का
ठहाका दूसरी ही क़िस्म का होता है। वह ज्यादातर पेट की बड़ी ही अन्दरूनी
गहराई से निकलता है। उस ठहाके के घनत्व का उनकी साधारण हँसी के साथ वही
अनुपात वैठता है जो उनकी आमदनी का उनकी तनख्वाह से होता है राजनीतिज्ञों का
ठहाका सिर्फ़ मुँह के खोखल से निकलता है और उसके दो ही आयाम होते हैं, उसमें
प्रायः गहराई नहीं होती। व्यापारियों का ठहाका होता ही नहीं है और अगर होता
भी है तो ऐसे सूक्ष्म और सांकेतिक रूप में, कि पता लग जाता है, ये
इनकम-टैक्स के डर से अपने ठहाके का स्टॉक बाहर नहीं निकालना चाहते। इन
नौजवानों ने जो ठहाका लगाया था, वह सबसे अलग था। यह शोहदों का ठहाका था, जो
आदमी के गले से निकलता है, पर जान पड़ता है, मुर्गों, गीदड़ों और घोड़ों के
गले से निकला है।
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