वैसे सबसे ज्यादा जोर-शोरवाले विज्ञापन खेती के लिए नहीं, मलेरिया के बारे
में थे। जगह-जगह मकानों की दीवारों पर गेरू से लिखा गया था कि “मलेरिया को
खत्म करने में हमारी मदद करो, मच्छरों को समाप्त हो जाने दो।" यहाँ भी यह
मानकर चला गया था कि किसान गाय-भैंस की तरह मच्छर भी पालने को उत्सुक हैं और
उन्हें मारने के पहले किसानों का हृदय-परिवर्तन करना पड़ेगा। हृदय-परिवर्तन
के लिए रोब की जरूरत है, रोब के लिए अंग्रेजी की जरूरत है-इस भारतीय
तर्क-पद्धति के हिसाब से मच्छर मारने और मलेरिया-उन्मूलन में सहायता करने की
सभी अपीलें प्रायः अंग्रेजी में लिखी गई थीं। इसीलिए प्रायः सभी लोगों ने
इनको कविता के रूप में नहीं, चित्रकला के रूप में स्वीकार किया था और गेरू से
दीवार रँगनेवालों को मनमानी अंग्रेजी लिखने की छूट दे दी थी। दीवारें रँगती
जाती थीं, मच्छर मरते जाते थे। कुत्ते मूंका करते थे, लोग अपनी राह चलते रहते
थे।
एक विज्ञापन भोले-भाले ढंग से बताता था कि हमें पैसा बचाना चाहिए। पैसा बचाने
की बात गाँववालों को उनके पूर्वज मरने के पहले ही बता गए थे और लगभग प्रत्येक
आदमी को अच्छी तरह मालूम थी। इसमें सिर्फ़ इतनी नवीनता थी कि यहाँ भी देश का
जिक्र था, कहीं-कहीं इशारा किया गया था कि अगर तुम अपने लिए पैसा नहीं बचा
सकते तो देश के लिए बचाओ। बात बहुत ठीक थी, क्योंकि सेठ-साहूकार, बड़े-बड़े
ओहदेदार, वकील डॉक्टर-ये सब तो अपने लिए पैसा बचा ही रहे थे, इसलिए छोटे-छोटे
किसानों को देश के लिए पैसा बचाने में क्या ऐतराज हो सकता था ! सभी इस बात से
सिद्धान्तरूप में सहमत थे कि पैसा बचाना चाहिए। पैसा बचाकर किस तरह कहाँ जमा
किया जाएगा, वे बातें भी विज्ञापनों और लेक्चरों में साफ़ तौर से बतायी गई
थीं और लोगों को उनसे भी कोई आपत्ति न थी। सिर्फ लोगों को यही नहीं बताया गया
था कि कुछ बचाने के पहले तुम्हारी मेहनत के एवज में तुम्हें कितना पैसा मिलना
चाहिए। पैसे की बचत का सवाल आमदनी और खर्च से जुड़ा हुआ है, इस छोटी-सी बात
को छोड़कर बाक़ी सभी बातों पर इन विज्ञापनों में विचार कर लिया गया था और
लोगों ने इनको इस भाव से स्वीकार कर लिया था कि ये बेचारे दीवार पर चुपचाप
चिपके हुए हैं, न दाना माँगते हैं, न चारा, न कुछ लेते हैं न देते हैं। चलो,
इन तस्वीरों को छेड़ो नहीं।
पर रंगनाथ को जिन विज्ञापनों ने अपनी ओर खींचा, वे पब्लिक सेक्टर के विज्ञापन
न थे, प्राइवेट सेक्टर की देन थे। उनसे प्रकट होनेवाली बातें कुछ इस प्रकार
थीं : “उस क्षेत्र में सबसे ज्यादा व्यापक रोग दाद है, एक ऐसी दवा है जिसको
दाद पर लगाया जाए तो उसे जड़ से आराम पहुँचता है, मुँह से खाया जाए तो
खाँसी-जुकाम दूर होता है, बताशे में डालकर पानी से निगल लिया जाए तो हैजे में
लाभ पहुँचता है। ऐसी दवा दुनिया में कहीं नहीं पायी जाती। उसके आविष्कारक अब
भी जिन्दा हैं, यह विलायतवालों की शरारत है कि उन्हें आज तक नोबल पुरस्कार
नहीं मिला है।" इस देश में और भी बड़े-बड़े डॉक्टर हैं जिनको नोबल पुरस्कार
नहीं मिला है। एक क़स्बा जहानाबाद में रहते हैं और चूँकि वहाँ बिजली आ चुकी
है, इसलिए वे नामर्दी का इलाज बिजली से करते हैं। अब नामर्दो को परेशान होने
की जरूरत नहीं है। एक दूसरे डॉक्टर, जो कम-से-कम भारतवर्ष-भर में तो मशहूर
हैं ही, बिना ऑपरेशन के अण्ड-वृद्धि का इलाज करते हैं। और यह बात शिवपालगंज
में किसी भी दीवार पर तारकोल के हरूफ़ में लिखी हुई पायी जा सकती है। वैसे
बहुत-से विज्ञापन बच्चों में सूखा रोग, आँखों की बीमारी और पेचिश आदि से भी
सम्बद्ध हैं, पर असली रोग संख्या में कुल तीन ही हैं-दाद, अण्डवृद्धि और
नामर्दी; और इनके इलाज की तरकीब शिवपालगंज के लड़के अक्षर-ज्ञान पा लेने के
बाद ही दीवारों पर अंकित लेखों के सहारे जानना शुरू कर देते हैं।
विज्ञापनों की इस भीड़ में वैद्यजी का विज्ञापन 'नवयुवकों के लिए आशा का
सन्देश' अपना अलग व्यक्तित्व रखता था। वह दीवारों पर लिखे 'नामर्दी का बिजली
से इलाज' जैसे अश्लील लेखों के मुक़ाबले में नहीं आता था। वह छोटे-छोटे
नुक्कड़ों, दुकानों और सरकारी इमारतों पर-जिनके पास पेशाब करना और जिन पर
विज्ञापन चिपकाना मना था-टीन की खूबसूरत तख्तियों पर लाल-हरे अक्षरों
में प्रकट होता था और सिर्फ इतना कहता था, 'नवयुवकों के लिए आशा का सन्देश'
नीचे वैद्यजी का नाम था और उनसे मिलने की सलाह थी।
एक दिन रंगनाथ ने देखा, रोगों की चिकित्सा में एक नया आयाम जुड़ रहा है सबेरे
से ही कुछ लोग एक दीवार पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिख रहे हैं : बवासीर !
शिवपालगंज की उन्नति का लक्षण था। बवासीर के चार आदम-क़द अक्षर चिल्लाकर कह
रहे थे कि यहाँ पेचिश का युग समाप्त हो रहा है, मुलायम तवीयत, दफ़्तर की
कुर्सी, शिष्टतापूर्ण रहन-सहन, चौबीस घण्टे चलनेवाले खान-पान और हल्के
परिश्रम का युग धीरे-धीरे संक्रमण कर रहा है और आधुनिकता के प्रतीक-जैसी
बवासीर सर्वव्यापी नामर्दी का मुकाबला करने के लिए मैदान में आ रही है। शाम
तक वह दैत्याकार विज्ञापन एक दीवार पर रंग-बिरंगी छाप छोड़ चुका था और
दूर-दूर तक ऐलान करने लगा था : बवासीर का शर्तिया इलाज !
देखते-देखते चार-छः दिन में ही सारा जमाना बवासीर और उसके शर्तिया इलाज के
नीचे दब गया। हर जगह वही विज्ञापन चमकने लगा। रंगनाथ को सबसे बड़ा अचम्भा तब
हुआ जब उसने देखा, वही विज्ञापन एक दैनिक समाचार-पत्र में आ गया है। यह
समाचार-पत्र रोज दस बजे दिन तक शहर से शिवपालगंज आता था और लोगों को बताने
में सहायक होता था कि स्कूटर और ट्रक कहाँ भिड़ा, अब्बासी नामक कथित गुण्डे
ने इरशाद नामक कथित सब्जी-फ़रोश पर कथित छुरी से कहाँ कथित रूप में वार किया।
रंगनाथ ने देखा कि उस दिन अखबार के पहले पृष्ठ का एक बहुत बड़ा हिस्सा काले
रंग में रंगा हुआ है और उस पर बड़े-बड़े सफ़ेद अक्षरों में चमक रहा है :
बवासीर ! अक्षरों की बनावट वही है जो यहाँ दीवारों पर लिखे विज्ञापन में है।
उन अक्षरों ने बवासीर को एक नया रूप दे दिया था, जिसके कारण आसपास की सभी
चीजें बवासीर की मातहती में आ गई थीं। काली पृष्ठभूमि में अखबार के पन्ने पर
चमकता हुआ 'बवासीर' दूर से ही आदमी को अपने में समेट लेता था। यहाँ तक कि
सनीचर, जिसे बड़े-बड़े अक्षर पढ़ने में भी आन्तरिक कष्ट होता था, अखबार के
पास खिंच आया और उस पर निगाह गड़ाकर बैठ गया। बहुत देर तक गौर करने के बाद वह
रंगनाथ से बोला, "वही चीज है।"
इसमें अभिमान की खनक थी। मतलब यह था कि शिवपालगंज की दीवारों पर चमकनेवाले
विज्ञापन कोई मामूली चीज नहीं हैं। ये बाहर अखबारों में छपते हैं, और इस तरह
जो शिवपालगंज में है, वही बाहर अखबारों में है।
रंगनाथ तख्त पर बैठा रहा। उसके सामने अखबार का पन्ना तिरछा होकर पड़ा था।
अमरीका ने एक नया उपग्रह छोड़ा था, पाकिस्तान-भारत-सीमा पर गोलियाँ चल रही
थीं, गेहूँ की कमी के कारण राज्यों का कोटा कम किया जानेवाला था,
सुरक्षा-समिति में दक्षिण अफ्रीका के कुछ मसलों पर बहस हो रही थी, इन सब
अबाबीलों को अपने पंजे में किसी दैत्याकार बाज की तरह दबाकर वह काला-सफ़ेद
विज्ञापन अपने तिरछे हरूफ़ में चीख रहा था : बवासीर ! बवासीर ! इस विज्ञापन
के अखबार में छपते ही बवासीर शिवपालगंज और अन्तर्राष्ट्रीय जगत् के बीच
सम्पर्क का एक सफल माध्यम बन चुकी थी।
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