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उपन्यास >> राग दरबारी

राग दरबारी

श्रीलाल शुक्ल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :335
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9648
आईएसबीएन :9788126713967

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पहलवान ने सिर हिलाया। कहा, "ठीक कहते हो मास्टर ! उधरवाले बड़े दलिद्दर होते हैं। सत्तू खाते हैं और चना चबाकर रिक्शा चलाते हैं। चार साल में बीमारी घेर लेती है तो घिघियाने लगते हैं।"

रिक्शेवाले ने हिकारत से कहा, "चमड़ी चली जाय पर दमड़ी न जाय, बड़े मक्खीचूस होते हैं। पारसाल लू में एक साला रिक्शा चलाते-चलाते सड़क पर ही टें बोल गया। देह पर बनियान न थी, पर टेंट से बाईस रुपये निकले।"

पहलवान ने सिर हिलाकर कहा, "लू वड़ी खराव चीज होती है। जब चल रही हो तो घर से निकलना न चाहिए। खा-पीकर, दरवाजा बन्द करके पड़े रहना चाहिए।" बात बड़ी मौलिक थी। रिक्शेवाले ने हेकड़ी से कहा, "मैं तो यही करता हूँ। गर्मियों में बस शाम को सनीमा के टैम गाड़ी निकालता हूँ। पर ये साले दिहाती रिक्शावाले ! इनकी न पूछिए ठाकुर साहब, साले जान पर खेल जाते हैं। चवन्नी के पीछे मुँह से फेना गिराते हुए दोपहर को भी मीलों चक्कर काटते हैं। इक्के का घोड़ा भी उस वक़्त पेड़ का साया नहीं छोड़ता, पर ये स्साले...।"

मारे हिकारत के रिक्शेवाले का मुँह थूक से भर गया और गला सँध गया। उसने थूककर बात खत्म की, “साले जरा-सी गर्म हवा लगते ही सड़क पर लेट जाते हैं।" पहलवान की दिलचस्पी इस बातचीत में खत्म हो गई थी। वे चुप रहे। रिक्शावाले ने रिक्शा धीमा किया और बोला, “सिगरेट पी ली जाए।"

पहलवान उतर पड़े और रिक्शे पर जोर देकर एक ओर खड़े हो गए। रिक्शेवाले ने सिगरेट सुलगा ली। कुछ देर वह चुपचाप सिगरेट पीता रहा, फिर मुँह से धुएँ के गोल-गोल छल्ले छोड़कर बोला, “उधर के दिहाती रिक्शावाले दिन-रात बीड़ी फूंक-फूंककर दाँत खराब करते रहते हैं।"

अब तक पीछे का रिक्शेवाला भी आ गया। फटी धोती और नंगा बदन। वह काँख-काँखकर रिक्शा खींच रहा था। शहरी रिक्शेवाले को देखकर भाईचारे के साथ बोला, "भैया, तुम भी गोंडा के हो क्या ?" सिगरेट फूंकते हुए इस रिक्शेवाले ने नाक सिकोड़कर कहा, “अबे, परे हट ! क्या बकता है ?"

वह रिक्शेवाला खिर्र-खिर्र करता हुआ आगे निकल गया।

आज के भावुकतापूर्ण कथाकारों ने न जाने किससे सीखकर बार-बार कहा है कि दुख मनुष्य को माँजता है। बात कुल इतनी नहीं है, सच तो यह है कि दुख मनुष्य को पहले फींचता है, फिर फींचकर निचोड़ता है, फिर निचोड़कर उसके चेहरे को घुग्घू- -जैसा बनाकर उस पर दो-चार काली-सफ़ेद लकीरें खींच देता है। फिर उसे सड़क पर लम्बे-लम्बे डगों से टहलने के लिए छोड़ देता है। दुख इन्सान के साथ यही करता है और उसने गोंडा के रिक्शावाले के साथ भी यही किया था। पर शहरी रिक्शावाले पर इसका कोई असर नहीं हुआ। सिगरेट फेंककर उसकी ओर बिना कोई ध्यान दिए उसने अपना रिक्शा तेजी से आगे बढ़ाया। दूसरा भाषण शुरू हुआ :

“अपना उसूल तो यह है ठाकुर साहब, कि चोखा काम, चोखा दाम। आठ आने कहकर सात आने पर तोड़ नहीं करते। जो कह दिया सो कह दिया। एक बार एक साहब मेरी पीठ पर बैठे-बैठे घर के हाल-चाल पूछने लगे। बोले, सरकार ने तुम्हारी हालत खराब कर रखी है। रिक्शे पर रोक नहीं लगाती। कितनी बुरी बात है कि आदमी पर आदमी चढ़ता है। मैंने कहा, तो मत चढ़ो। वे कहने लगे, मैं तो इसलिए चढ़ता हूँ कि लोग अगर रिक्शे का वाइकाट कर दें तो रिक्शेवाले भूखों मर जाएँगे। उसके बाद वे फिर रिक्शावालों के नाम पर रोते रहे। बहुत रोये। रोते जाते थे और सरकार को गाली देते जाते थे। कहते जाते थे कि तुम यूनियन बनाओ, मोटर-रिक्शों की माँग करो। न जाने क्या-क्या बकते जाते थे। मगर ठाकुर साहब, हमने भी कहा कि बेटा, झाड़े रहो। चाहे कितना रोओ हमारे लिए, किराये की अठन्नी में एक पाई कम नहीं करूंगा।"

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