उपन्यास >> राग दरबारी राग दरबारीश्रीलाल शुक्ल
|
2 पाठकों को प्रिय 221 पाठक हैं |
6
शहर से देहात को जानेवाली सड़क पर एक साइकिल-रिक्शा चला जा रहा था।
रिक्शावाला रंगीन बनियान, हाफपैण्ट, लम्बे बाल, दुबले-पतले जिस्मवाला नौजवान
था। उसका पसीने से लथपथ चेहरा देखकर वेदना का फोटोग्राफ़ नहीं, बल्कि वेदना
का कार्टून आँख के आगे आ जाता था।
रिक्शे पर अपनी दोनों जाँघों पर हाथों की मुट्ठियाँ जमाए हुए बद्री पहलवान
बैठे थे। रिक्शे पर उनके पैरों के पास एक सन्दूक रखा हुआ था। दोनों पैर
सन्दूक के सिरों पर जमाकर स्थापित कर दिए गए थे। इस तरह पैर टूटकर रिक्शे के
नीचे भले ही गिर जाएँ, सन्दूक के नीचे गिरने का कोई खतरा न था।
सन्ध्या का बेमतलब सुहावना समय था। पहलवान का गाँव अभी तीन मील दूर होगा।
उन्होंने शेर की तरह मुँह खोलकर जम्हाई ली और उसी लपेट में कहा, “इस साल फ़सल
कमजोर जा रही है।"
रिक्शावाला कृषि-विज्ञान और अर्थशास्त्र पर गोष्टी करने के मूड में न था। वह
चुपचाप रिक्शा चलाता रहा। पहलवान ने अब उससे साफ़-साफ़ पूछा, “किस जिले के हो
? तुम्हारे उधर फ़सल की क्या हालत है ?"
रिक्शेवाले ने सिर को पीछे नहीं मोड़ा। आँख पर आती हुई वालों की लट को गरदन
की लोचदार झटक के साथ मत्थे के ऊपर फेंककर उसने कहा, "फ़सल ? हम दिहाती नहीं
हैं ठाकुर साहब, खास शहर के रहनेवाले हैं।" इसके बाद वह कूल्हे मटका-मटकाकर
जोर से रिक्शा चलाने लगा। आगे जानेवाले एक दूसरे रिक्शे को देखकर उसने घण्टी
बजायी।
पहलवान ने दूसरी जम्हाई ली और फ़सल की ओर फिर से ताकना शुरू कर दिया।
रिक्शावाला सबारी की यह बेरुखी देखकर उलझन में पड़ गया। रंग जमाने के लिए
उसने आगेवाले रिक्शेवाले को ललकारा, “अबे ओ बाँगडू! चल बायीं तरफ़ !"
आगे का रिक्शेवाला बायीं तरफ़ हो लिया। पहलवान का रिक्शा उसके पास से आगे
निकल गया। निकलते-निकलते इस रिक्शावाले ने बायीं ओर के रिक्शावाले से पूछा,
“क्यों, गोंडा का रहनेवाला है या बहराइच का ?"
वह रिक्शेवाला एक आदमी को कुछ गठरियों और एक गठरीनुमा बीवी के साथ लादकर
धीरे-धीरे चल रहा था। इस भाईचारे से खुश होकर बोला, “गोंडा में रहते हैं भैया
!"
शहरी रिक्शेवाले ने मुँह से सिनेमावाली सीटी बजाकर और आँखें फैलाकर कहा, "वही
तो।"
पहलवान ने इसे भी अनसुना कर दिया। साँस खींचकर कहा, “जरा इश्पीड बढ़ाए रहो
मास्टर !"
रिक्शावाला सीट पर उचक-उचककर रफ्तार बढ़ाने और साथ ही भाषण देने लगा : “ये
गोंडा-बहराइच और इधर-उधर के रिक्शावाले आकर यहाँ का चलन बिगाड़ते हैं।
दायें-बायें की तमीज नहीं। इनसे ज्यादा समझदार तो भूसा-गाड़ियों के बैल होते
हैं। बिलकुल हूश हैं। अंग्रेजी बाजारों में बिरहा गाते निकलते हैं। मोची तक
को रिक्शे पर बैठाकर उसे हुजूर, सरकार कहते हैं। कोई पूछ दे कि माल एवेन्यू
का फ्रैम्पटन स्केयर चलो तो दाँत निकाल देते हैं। इनके बाप ने भी इन जगहों का
नाम सुना हो तो- !"
|