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उपन्यास >> राग दरबारी

राग दरबारी

श्रीलाल शुक्ल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :335
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9648
आईएसबीएन :9788126713967

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पहलवान ने आँखें बन्द कर ली थीं। जम्हाई लेकर बोले, “कुछ सिनेमा का गाना-वाना भी गाते हो कि बातें झलते रहोगे ?"

रिक्शेवाले ने कहा, “यहाँ तो ठाकुर साहब दो ही बातें हैं, रोज सिनेमा देखना और फटाफट सिगरेट पीना। गाना भी सुना देता, पर इस वक़्त गला खराब है।" पहलवान हँसे, “तब फिर क्या ? शहर का नाम डुबोए हो।"

रिक्शावाला इस अपमान को शालीनता के साथ हजम कर गया। फिर कुछ सोचकर उसने धीरे-से 'लारी लप्पा, लारी लप्पा' की धुन निकालनी शुरू की। पहलवान ने उधर ध्यान नहीं दिया। उसने सबारी की तबीयत को गिरा देखकर फिर बात शुरू की, “हमारे भाई भी रिक्शा चलाते हैं, पर सिर्फ खास-खास मुहल्लों में सबारियाँ ढोते हैं। एक सुलतानपुरी रिक्शेवाले को उन्होंने दो-चार दाँव सिखाए तो वह रोने लगा। बोला, जान ले लो पर धरम न लो। हम इस काम के लिए सबारी न लादेंगे। हमने कहा कि भैया बन्द करो, गधे को दुलकी चलाकर घोड़ा न बनाओ।"

शिवपालगंज नजदीक आ रहा था। उन्होंने रिक्शेवाले को सनद-जैसी देते हुए कहा, "तुम आदमी बहुत ठीक हो। सबको मुँह न लगाना चाहिए। तुम्हारा तरीक़ा पक्का है।" फिर वे कुछ सोचकर बोले, “पर तुम्हारी तन्दुरुस्ती कुछ ढीली-ढाली है। कुछ महीने डण्ड-बैठक लगा डालो। फिर देखो क्या होता है।"

“उससे क्या होगा ?" रिक्शावाले ने कहा, “मैं भी पहलवान हो जाऊँगा। पर अब पहलवानी में क्या रखा है ? लड़ाई में जब ऊपर से बम गिरता है तो नीचे बड़े-बड़े पहलवान ढेर हो जाते हैं। हाथ में तमंचा हो तो पहलवान हुए तो क्या, और न तो क्या ?' कुछ रुककर रिक्शावाले ने इत्मीनान से कहा, “पहलवानी तो अब दिहात में ही चलती है ठाकुर साहब ! हमारे उधर तो अब छुरेबाजी का जोर है।"

इतनी देर बाद बद्री पहलवान को अचानक अपमान की अनुभूति हुई। हाथ बढ़ाकर उन्होंने रिक्शावाले की बनियान चुटकी से पकड़कर खींची और कहा, “अबे, घण्टे-भर से यह 'ठाकुर साहब', 'ठाकुर साहब' क्या लगा रखा है ! जानता नहीं, मैं बाँभन हूँ !"

यह सुनकर रिक्शेवाला पहले तो चौंका, पर बाद में उसने सर्वोदयी भाव ग्रहण कर लिया। "कोई बात नहीं पण्डितजी, कोई बात नहीं।" कहकर वह सड़क के किनारे प्रकृति की शोभा निहारने लगा।

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