लोगों की राय

उपन्यास >> राग दरबारी

राग दरबारी

श्रीलाल शुक्ल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :335
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9648
आईएसबीएन :9788126713967

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

221 पाठक हैं


पर वैद्यजी कड़ककर बोले, “क्या स्त्रियों की भाँति फुस-फुस कर रहा है? कोऑपरेटिव में गबन हो गया तो कौन-सी बड़ी बात हो गई ? कौन-सी यूनियन है जिसमें ऐसा न हुआ हो ?"

कुछ रुककर, वे समझाने के ढंग पर वोले, “हमारी यूनियन में गबन नहीं हुआ था, इस कारण लोग हमें सन्देह की दृष्टि से देखते थे। अब तो हम कह सकते हैं कि हम सच्चे आदमी हैं। गबन हुआ है और हमने छिपाया नहीं है। जैसा है, वैसा हमने बता दिया है।"

साँस खींचकर उन्होंने बात समाप्त की, “चलो अच्छा ही हुआ। एक काँटा निकल गया...चिन्ता मिटी।"

प्रिंसिपल साहब तकिये के सहारे निश्चल बैठे रहे। आखिर में एक ऐसी बात बोले जिसे सब जानते हैं। उन्होंने कहा, “लोग आजकल बड़े बेईमान हो गए हैं।"

यह बात बड़ी ही गुणकारी है और हर भला आदमी इसका प्रयोग मल्टी-विटामिन टिकियों की तरह दिन में तीन बार खाना खाने के बाद कर सकता है। पर क्लर्क को इसमें कुछ व्यक्तिगत आक्षेप-जैसा जान पड़ा। उसने जवाब दिया, “आदमी आदमी पर है। अपने कॉलिज में तो आज तक ऐसा नहीं हुआ।"

वैद्यजी ने उसे आत्मीयता की दृष्टि से देखा और मुस्कराए। कोऑपरेटिव यूनियनवाला गबन बीज-गोदाम से गेहूँ निकालकर हुआ था। उसी की ओर इशारा करते हुए बोले, “कॉलिज में गबन कैसे हो सकता है ! वहाँ गेहूँ का गोदाम नहीं होता।"

यह मजाक था। प्रिंसिपल साहब हँसे, एक बार हँसी शुरू हुई तो आगे का काम भंग ने सँभाल लिया। वे हँसते ही रहे। पर क्लर्क व्यक्तिगत आक्षेप के सन्देह से पीड़ित जान पड़ता था। उसने कहा, “पर चाचा, कॉलिज में तो भूसे के सैकड़ों गोदाम हैं। हरएक के दिमाग में भूसा ही भरा है।"

इस पर और भी हँसी हुई। सनीचर और रंगनाथ भी हँसे। हँसी की लहर चबूतरे तक पहुंच गई। वहाँ पर बैठे हुए दो-चार गुमनाम आदमी भी असम्पृक्त भाव से हँसने लगे। क्लर्क ने प्रिंसिपल को आँख से चलने का इशारा किया।

यह हमारी गौरवपूर्ण परम्परा है कि असल बात दो-चार घण्टे की बातचीत के बाद अन्त में ही निकलती है। अतः वैद्यजी ने अब प्रिंसिपल साहब से पूछा, “और कोई विशेष बात ?"

"कुछ नहीं...वही खन्नावाला मामला है। परसों दर्जे में काला चश्मा लगाकर पढ़ा रहे थे। मैंने वहीं फींचकर रख दिया। लड़कों को बहका रहे थे। मैंने कहा, लो पुत्रवर, तुम्हें हम यहीं घसीटकर फ़ीता वनाए देते हैं।'' प्रिंसिपल साहब ने अपने ऊपर बड़ा संयम दिखाया था, पर यह बात खत्म करते-करते अन्त में उनके मुँह से 'फिक्-फिक्' जैसी कोई चीज निकल ही गई।

वैद्यजी ने गम्भीरता से कहा, “ऐसा न करना चाहिए। विरोधी से भी सम्मानपूर्ण व्यवहार करना चाहिए। देखो न, प्रत्येक बड़े नेता का एक-एक विरोधी है। सभी ने स्वेच्छा से अपना-अपना विरोधी पकड़ रखा है। यह जनतन्त्र का सिद्धान्त है। हमारे नेतागण कितनी शालीनता से विरोधियों को झेल रहे हैं। विरोधीगण अपनी बात वकत रहते हैं और नेतागण चुपचाप अपनी चाल चलते रहते हैं। कोई किसी से प्रभावित नहीं होता। यह आदर्श विरोध है। आपको भी यही रुख अपनाना चाहिए।"

क्लर्क पर राजनीति के इन मौलिक सिद्धान्तों का कोई असर नहीं हुआ। वह बोला, "इससे कुछ नहीं होता, चाचा ! खन्ना मास्टर को मैं जानता हूँ । इतिहास में एम.ए. हैं, पर उन्हें अपने बाप तक का नाम नहीं मालूम। सिर्फ़ पार्टीबन्दी के उस्ताद हैं। अपने घर पर लड़कों को बुला-बुलाकर जुआ खिलाते हैं। उन्हें ठीक करने का सिर्फ एक तरीक़ा है। कभी पकड़कर दनादन-दनादन लगा दिए जाएँ।..."

इस बात ने वैद्यजी को और भी गम्भीर बना दिया, पर और लोग उत्साहित हो उठे। बात जूता मारने की पद्धति और परम्परा पर आ गई। सनीचर ने चहककर कहा कि जब खन्ना पर दनादन-दनादन पड़ने लगें, तो हमें भी बताना। बहुत दिन से हमने किसी को जुतिआया नहीं है। हम भी दो-चार हाथ लगाने चलेंगे। एक आदमी बोला कि जूता अगर फटा हो और तीन दिन तक पानी में भिगोया गया हो तो मारने में अच्छी आवाज करता है और लोगों को दूर-दूर तक सूचना मिल जाती है कि जूता चल रहा है। दूसरा बोला कि पढ़े-लिखे आदमी को जुतिआना हो तो गोरक्षक जूते का प्रयोग करना चाहिए ताकि मार तो पड़ जाए, पर ज्यादा बेइज्जती न हो। चबूतरे पर बैठे-बैठे एक तीसरे आदमी ने कहा कि जुतिआने का सही तरीक़ा यह है कि गिनकर सौ जूते मारने चले, निन्यानवे तक आते-आते पिछली गिनती भूल जाय और एक से गिनकर फिर नये सिरे से जूता लगाना शुरू कर दे। चौथे आदमी ने इसका अनुमोदन करते हुए कहा कि सचमुच जुतिआने का यही एक तरीक़ा है और इसीलिए मैंने भी सौ तक गिनती याद करनी शुरू कर दी है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book