उपन्यास >> राग दरबारी राग दरबारीश्रीलाल शुक्ल
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रंगनाथ ने अपने जीवन में अब तक काफ़ी बेवकूफ़ियाँ नहीं की थीं। इसलिए उसे
अनुभवी नहीं कहा जा सकता था। लंगड़ के इतिहास का उसके मन पर बड़ा ही गहरा
प्रभाव पड़ा और वह भावुक हो गया। भावुक होते ही 'कुछ करना चाहिए' की भावना
उसके मन को मथने लगी, पर क्या करना चाहिए' इसका जवाब उसके पास नहीं था।
जो भी हो, भीतर-ही-भीतर जब बात बरदाश्त से बाहर होने लगी तो उसने भुनभुनाकर
कह ही दिया, “यह सब बहुत गलत है...कुछ करना चाहिए !"
क्लर्क ने शिकारी कुत्ते की तरह झपटकर यह बात दबोच ली। बोला, “क्या कर सकते
हो रंगनाथ बाबू ? कोई क्या कर सकता है ? जिसके छिलता है, उसी के चुनमुनाता
है। लोग अपना ही दुख-दर्द ढो लें, यही बहुत है। दूसरे का बोझा कौन उठा सकता
है ? अब तो वही है भैया, कि तुम अपना दाद उधर से खुजलाओ, हम अपना इधर से
खुजलायें।"
क्लर्क चलने को उठा खड़ा हुआ। प्रिंसिपल ने चारों ओर निगाह दौड़ाकर कहा,
"बद्री भैया दिखायी नहीं पड़ रहे हैं।"
वैद्यजी ने कहा, “एक रिश्तेदार डकैती में फँस गए हैं। पुलिस की लीला अपरम्पार
है। जानते ही हो। बद्री वहीं गया था। आज लौट रहा होगा।"
सनीचर चौखट के पास बैठा था। मुँह से सीटी-जैसी बजाते हुए बोला, “जब तक नहीं
आते तभी तक भला है।"
प्रिंसिपल साहब भंग पीकर अब तक भूल चुके थे कि आराम हराम है। एक बड़ा-सा
तकिया अपनी ओर खींचकर वे इत्मीनान से बैठ गए और बोले, “बात क्या है?"
सनीचर ने बहुत धीरे-से कहा, “कोऑपरेटिव यूनियन में गबन हो गया है। बद्री भैया
सुनेंगे तो सुपरवाइजर को खा जाएँगे।"
प्रिंसिपल आतंकित हो गए। उसी तरह फुसफुसाकर बोले, “ऐसी बात है !"
सनीचर ने सिर झुकाकर कुछ कहना शुरू कर दिया। वार्तालाप की यह वही अखिल भारतीय
शैली थी जिसे पारसी थियेटरों ने अमर बना दिया है। इसके सहारे एक आदमी दूसरे
से कुछ कहता है और वहीं पर खड़े हुए तीसरे आदमी को कानोंकान खबर नहीं होती;
यह दूसरी बात है कि सौ गज की दूरी तक फैले हुए दर्शकगण उस बात को अच्छी तरह
सुनकर समझ लेते हैं और पूरे जनसमुदाय में स्टेज पर खड़े हुए दूसरे आदमी को
छोड़कर, सभी लोग जान लेते हैं कि आगे क्या होनेवाला है। संक्षेप में, बात को
गुप्त रखने की इस हमारी परम्परागत शैली को अपनाकर सनीचर ने प्रिंसिपल साहब को
कुछ बताना शुरू किया।
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