उपन्यास >> राग दरबारी राग दरबारीश्रीलाल शुक्ल
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नक़लनवीस चिड़ीमार निकला, उसने पाँच रुपये माँगे । लंगड़ बोला कि रेट दो
रुपये का है। इसी पर बहस हो गई। दो-चार वकील वहाँ खड़े थे, उन्होंने पहले
नक़लनवीस से कहा कि, भाई दो रुपये में ही मान जाओ, यह बेचारा लँगड़ा है। नक़ल
लेकर तुम्हारे गुण गायेगा। पर वह अपनी बात से बाल-बरावर भी नहीं खिसका। एकदम
से मर्द बन गया और बोला कि मर्द की बात एक होती है। जो कह दिया, वही
लूँगा।...
"तब वकीलों ने लंगड़ को समझाया। बोले कि नक़ल बाबू भी घर-गिरिस्तीदार आदमी
हैं। लड़कियाँ व्याहनी हैं। इसलिए रेट बढ़ा दिया है। मान जाओ और पाँच रुपये
दे दो। पर वह भी ऐंठ गया। बोला कि अब यही होता है। तनख्वाह तो दारू-कलिया पर
खर्च करते हैं और लड़कियाँ ब्याहने के लिए घूस लेते हैं। नक़ल बाबू बिगड़
गया।
गुर्राकर बोला कि जाओ, हम इसी बात पर घूस नहीं लेंगे। जो कुछ करना होगा,
क़ायदे से करेंगे। वकीलों ने बहुत समझाया कि ‘ऐसी बात न करो, लंगड़ भगत आदमी
है, उसकी बात का बुरा न मानो,' पर उसका गुस्सा एक बार चढ़ा तो फिर नहीं उतरा।
"सच तो यह है रंगनाथ बाबू कि लंगड़ ने गलत नहीं कहा था। इस देश में लड़कियाँ
ब्याहना भी चोरी करने का बहाना हो गया है। एक रिश्वत लेता है तो दूसरा कहता
है कि क्या करे बेचारा ! बड़ा खानदान है, लड़कियाँ ब्याहनी हैं। सारी बदमाशी
का तोड़ लड़कियों के ब्याह पर होता है।
"जो भी हो, लंगड़ और नक़ल बाबू में बड़ी हुज्जत हुई। अब घूस के मामले में
बात-बात पर हुज्जत होती ही है। पहले सधा काम होता था। पुराने आदमी बात के
पक्के होते थे। एक रुपिया टिका दो, दूसरे दिन नक़ल तैयार । अब नये-नये स्कूली
लड़के दफ़्तर में घुस आते हैं और लेन-देन का रेट बिगाड़ते हैं। इन्हीं की
देखादेखी पुराने आदमी भी मनमानी करते हैं। अब रिश्वत का देना और रिश्वत का
लेना-दोनों बड़े झंझट के काम हो गए हैं।
"लंगड़ को भी गुस्सा आ गया। उसने अपनी कण्ठी छूकर कहा कि जाओ बाबू, तुम
क़ायदे से ही काम करोगे तो हम भी क़ायदे से ही काम करेंगे। अब तुमको एक कानी
कौड़ी न मिलेगी। हमने दरख्वास्त लगा दी है, कभी-न-कभी तो नम्बर आएगा ही।
"उसके बाद लंगड़ ने जाकर तहसीलदार को सब हाल बताया। तहसीलदार बहुत हँसा और
बोला कि शाबाश लंगड़, तुमने ठीक ही किया। तुम्हें इस लेन-देन में पड़ने की
कोई जरूरत नहीं। नम्बर आने पर तुम्हें नक़ल मिल जाएगी। उसने पेशकार से कहा,
देखो, लंगड़ बेचारा चार महीने से हैरान है। अब क़ायदे से काम होना चाहिए,
इन्हें कोई परेशान न करे। इस पर पेशकार बोला कि सरकार, यह लँगड़ा तो झक्की
है। आप इसके झमेले में न पड़ें। तब लंगड़ पेशकार पर बिगड़ गया। झाँय-झाँय
होने लगी। किसी तरह दोनों में तहसीलदार ने सुलह करायी।
"लंगड़ जानता है कि नक़ल बाबू उसकी दरख्वास्त किसी-न-किसी बहाने खारिज करा
देगा। दरख्वास्त बेचारी तो चींटी की जान-जैसी है। उसे लेने के लिए कोई बड़ी
ताकत न चाहिए। दरख्वास्त को किसी भी समय खारिज कराया जा सकता है। फ़ीस का
टिकट कम लगा है, मिसिल का पता गलत लिखा है, एक खाना अधूरा पड़ा है-ऐसी ही कोई
बात पहले नोटिस-बोर्ड पर लिख दी जाती है और अगर उसे दी गई तारीख तक ठीक न
किया जाए तो दरख्वास्त खारिज कर दी जाती है।
“इसीलिए लंगड़ ने अब पूरी-पूरी तैयारी कर ली है। वह अपने गाँव से चला आया है,
अपने घर में उसने ताला लगा दिया है। खेत-पात, फ़सल, बैल-बधिया, सब भगवान के
भरोसे छोड़ आया है। अपने एक रिश्तेदार के यहाँ डेरा डाल दिया है और सबेरे से
शाम तक तहसील के नोटिस-बोर्ड के आसपास चक्कर काटा करता है। उसे डर है कि कहीं
ऐसा न हो कि नोटिस-बोर्ड पर उसकी दरख्वास्त की कोई खबर निकले और उसे पता ही न
चले। चूके नहीं कि दरख्वास्त खारिज हुई। एक बार ऐसा हो भी चुका है।
"उसने नक़ल लेने के सब क़ायदे रट डाले हैं। फ़ीस का पूरा चार्ट याद कर लिया
है। आदमी का जब करम फूटता है तभी उसे थाना-कचहरी का मुँह देखना पड़ता है।
लंगड़ का भी करम फूट गया है। पर इस बार जिस तरह से वह तहसील पर टूटा है, उससे
लगता है कि पट्ठा नक़ल लेकर ही रहेगा।"
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