उपन्यास >> राग दरबारी राग दरबारीश्रीलाल शुक्ल
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पुनर्जन्म के सिद्धान्त की ईजाद दीवानी की अदालतों में हुई है, ताकि वादी और
प्रतिवादी इस अफसोस को लेकर न मरें कि उनका मुकदमा अधूरा ही पड़ा रहा। इसके
सहारे वे सोचते हुए चैन से मर सकते हैं कि मुक़दमे का फैसला सुनने के लिए अभी
अगला जन्म तो पड़ा ही है।
वैद्यजी की बैठक के बाहर चबूतरे पर जो आदमी इस समय बैठा था, उसने लगभग सात
साल पहले दीवानी का एक मुकदमा दायर किया था; इसलिए स्वाभाविक था कि वह अपनी
बात में पूर्वजन्म के पाप, भाग्य, भगवान्, अगले जन्म के कार्यक्रम आदि का
नियमित रूप से हवाला देता।
उसको लोग लंगड़ कहते थे। माथे पर कबीरपन्थी तिलक, गले में तुलसी की कण्ठी,
आँधी-पानी झेला हुआ दढ़ियल चेहरा, दुबली-पतली देह, मिर्जई पहने हुए। एक पैर
घुटने
के पास से कटा था, जिसकी कमी एक लाठी से पूरी की गई थी। चेहरे पर पुराने
जमाने के उन ईसाई सन्तों का भाव, जो रोज अपने हाथ से अपनी पीठ पर खींचकर सौ
कोड़े
मारते हों।
उसकी ओर सनीचर ने भंग का एक गिलास वढ़ाया और कहा, “लो भाई लंगड़, पी जाओ।
इसमें बड़े-बड़े माल पड़े हैं।"
लंगड़ ने आँखें मूंदकर इनकार किया और थोड़ी देर दोनों में बहस होती रही जिसका
सम्बन्ध भंग की गरिमा, बादाम-मुनक्के के लाभ, जीवन की क्षण-भंगुरता, भोग और
त्याग-जैसे दार्शनिक विषयों से था। बहस के अन्त में सनीचर ने अपना दूसरा हाथ
अण्डरवियर में पोंछकर सभी तर्कों से छुटकारा पा लिया और सांसारिक विषयों के
प्रति उदासीनता दिखाते हुए भुनभुनाकर कहा, “पीना हो तो सटाक से गटक जाओ, न
पीना हो तो हमारे ठेंगे से !"
लंगड़ ने जोर से साँस खींची और आँखें मूंद लीं, जो कि आत्म-दया से पीड़ित
व्यक्तियों से लेकर ज्यादा खा जानेवालों तक में भाव-प्रदर्शन की एक बड़ी ही
लोकप्रिय मुद्रा मानी जाती है। सनीचर ने उसे छोड़ दिया और एक ऐसी बन्दर-छाप
छलाँग लगाकर, जो डार्विन के विकासवादी सिद्धान्त की पुष्टि करती थी, बैठक के
भीतरी हिस्से पर हमला किया। वहाँ प्रिंसिपल साहब, क्लर्क, वैद्यजी, रंगनाथ
आदि बैठे हुए थे। दिन के दस बजनेवाले थे।
सनीचर ने भंग का वही गिलास अब प्रिंसिपल साहब की ओर बढ़ाया और वही बात कही,
“पी जाइए मास्टर साहब, इसमें बड़े-बड़े माल हैं।"
प्रिंसिपल साहब ने वैद्यजी से कहा, “कॉलिज का काम छोड़कर आया हूँ। इसे शाम के
लिए ही रखा जाए।"
वैद्यजी ने स्नेहपूर्वक कहा, “सन्ध्याकाल पुनः पी लीजिएगा।"
"कॉलिज छोड़कर आया हूँ...।" वे फिर बोले।
रुप्पन बाबू कॉलिज जाने के लिए घर से तैयार होकर निकले। रोज की तरह कन्धे पर
पड़ा हुआ धोती का छोर। वुश्शर्ट, जो उनकी फ़िलासफ़ी के अनुसार मैली होने के
बावजूद, क़ीमती होने के कारण पहनी जा सकती थी। इस समय पान खा लिया था और बाल
सँवार लिये थे। हाथ में एक मोटी-सी किताब, जो खासतौर से नागरिकशास्त्र के
घण्टे में पढ़ी जाती थी और जिसका नाम 'जेबी जासूस' था। जेब में दो
फ़ाउण्टेनपेन, एक लाल और एक नीली स्याही का, दोनों बिना स्याही के। कलाई में
घड़ी, जो सिद्ध करती थी कि जो जुआ खेलता है उसकी घड़ी तक रेहन हो जाती है और
जो जुआड़ियों का मान रहन रखता है उसे क़ीमती घड़ी दस रुपये तक में मिल जाती
है।
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