उपन्यास >> राग दरबारी राग दरबारीश्रीलाल शुक्ल
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रुप्पन वाबू ने प्रिंसिपल साहब की बात बाहर निकलते-निकलते सुन ली थी; वे वहीं
से बोले, “कॉलिज को तो आप हमेशा ही छोड़े रहते हैं। वह तो कॉलिज ही है जो
आपको नहीं छोड़ता।"
प्रिंसिपल साहब झेंपे; इसलिए हँसे और जोर से बोले, “रुप्पन बाबू बात पक्की
कहते हैं।"
सनीचर ने उछलकर उनकी कलाई पकड़ ली। किलककर कहा, “तो लीजिए इसी बात पर चढ़ा
जाइए एक गिलास।"
वैद्यजी सन्तोष से प्रिंसिपल का भंग पीना देखते रहे। पीकर प्रिंसिपल साहब
बोले, “सचमुच ही बड़े-बड़े माल पड़े हैं।"
वैद्यजी ने कहा, “भंग तो नाममात्र को है। है, और नहीं भी है। वास्तविक द्रव्य
तो बादाम, मुनक्का और पिस्ता हैं। बादाम बुद्धि और वीर्य को बढ़ाता है।
मुनक्का रेचक है। इसमें इलायची भी पड़ी है। इसका प्रभाव शीतल है। इससे वीर्य
फटता नहीं, ठोस और स्थिर रहता है। मैं तो इसी पेय का एक छोटा-सा प्रयोग
रंगनाथ पर भी कर रहा हूँ।
प्रिंसिपल साहब ने गरदन उठाकर कुछ पूछना चाहा, पर वे पहले ही कह चले, "इन्हें
कुछ दिन हुए, ज्वर रहने लगा था। शक्ति क्षीण हो चली थी। इसीलिए मैंने इन्हें
यहाँ बुला लिया है। इनके लिए नित्य का एक कार्यक्रम बना दिया गया है। पौष्टिक
द्रव्यों में बादाम का सेवन भी है। दो पत्ती भंग की भी। देखना है, छः मास के
पश्चात् जब ये यहाँ से जाएँगे तो क्या होकर जाते हैं।"
कॉलिज के क्लर्क ने कहा, “छडूंदर-जैसे आए थे, गैण्डा बनकर जाएँगे। देख लेना
चाचा।"
जब कभी क्लर्क वैद्यजी को 'चाचा' कहता था, प्रिंसिपल साहब को अफसोस होता था
कि वे उन्हें अपना बाप नहीं कह पाते। उनका चेहरा उदास हो गया। वे सामने पड़ी
हुई फ़ाइलें उलटने लगे।
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