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उपन्यास >> राग दरबारी

राग दरबारी

श्रीलाल शुक्ल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :335
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9648
आईएसबीएन :9788126713967

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ब्रह्मचर्य के नाश का क्या नतीजा होता है, इस विषय पर वे वड़ा खौफ़नाक भाषण देते थे। सुकरात ने शायद उन्हें या किसी दूसरे को बताया था कि जिन्दगी में तीन बार के बाद चौथी बार ब्रह्मचर्य का नाश करना हो तो पहले अपनी क़ब्र खोद लेनी चाहिए इस इंटरव्यू का हाल वे इतने सचित्र ढंग से पेश करते थे कि लगता था, ब्रह्मचर्य पर सुकरात उनके आज भी अबैतनिक सलाहकार हैं। उनकी राय में ब्रह्मचर्य न रखने से सबसे बड़ा हर्ज यह होता था कि आदमी बाद में चाहने पर भी ब्रह्मचर्य का नाश करने लायक नहीं रह जाता था। संक्षेप में, उनकी राय थी कि ब्रह्मचर्य का नाश कर सकने के लिए ब्रह्मचर्य का नाश न होने देना चाहिए।

उनके इन भाषणों को सुनकर कॉलिज के तीन-चौथाई लड़के अपने जीवन से निराश हो चले थे। पर उन्होंने एक साथ आत्महत्या नहीं की थी, क्योंकि वैद्यजी के दवाखाने का एक विज्ञापन था :

'जीवन से निराश नवयुवकों के लिए आशा का सन्देश !'

आशा किसी लड़की का नाम होता, तब भी लड़के यह विज्ञापन पढ़कर इतने उत्साहित न होते। पर वे जानते थे कि सन्देश एक गोली की ओर से आ रहा है जो देखने में बकरी की लेंडी-जैसी है, पर पेट में जाते ही रगों में बिजली-सी दौड़ाने लगती है।

एक दिन उन्होंने रंगनाथ को भी ब्रह्मचर्य के लाभ समझाए। उन्होंने एक अजीब-सा शरीर-विज्ञान बताया, जिसके हिसाब से कई मन खाने से कुछ छटाँक रस बनता है, रस से रक्त, रक्त से कुछ और, और इस तरह आखिर में वीर्य की एक बूंद बनती है। उन्होंने साबित किया कि वीर्य की एक बूँद बनाने में जितना खर्च होता है उतना एक ऐटम बम बनाने में भी नहीं होता। रंगनाथ को जान पड़ा कि हिन्दुस्तान के पास अगर कोई कीमती चीज है तो वीर्य ही है। उन्होंने कहा कि वीर्य के हजार दुश्मन हैं और सभी उसे लूटने पर आमादा हैं। अगर कोई किसी तरकीब से अपना वीर्य बचा ले जाए तो, समझो, पूरा चरित्र बचा ले गया। उनकी बातों से लगा कि पहले हिन्दुस्तान में वीर्य-रक्षा पर बड़ा जोर था, और एक ओर घी-दूध की तो दूसरी ओर वीर्य की नदियाँ बहती थीं। उन्होंने आखिर में एक श्लोक पढ़ा जिसका मतलब था कि वीर्य की एक बूंद गिरने से आदमी मर जाता है और एक बूंद उठा लेने से जिन्दगी हासिल करता है।

संस्कृत सुनते ही सनीचर ने हाथ जोड़कर कहा, “जय भगवान् की !" उसने सिर जमीन पर टेक दिया और श्रद्धा के आवेग में अपना पिछला हिस्सा छत की ओर उठा दिया। वैद्यजी और भी जोश में आ गए और रंगनाथ से बोले, “ब्रह्मचर्य के तेज का क्या कहना ! कुछ दिन बाद शीशे में अपना मुँह देखना, तब ज्ञात होगा।"

रंगनाथ सिर हिलाकर अन्दर जाने को उठ खड़ा हुआ। अपने मामा के इस स्वभाव को वह पहले से जानता था। रुप्पन बाबू दरवाजे के पास खड़े थे। उन पर वैद्यजी के भाषण का कोई असर नहीं पड़ा था। उन्होंने रंगनाथ से फुसफुसाकर कहा, “मुँह पर तेज लाने के लिए आजकल ब्रह्मचर्य की क्या जरूरत? वह तो क्रीम-पाउडर के इस्तेमाल से भी आ जाता है।"

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