उपन्यास >> राग दरबारी राग दरबारीश्रीलाल शुक्ल
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वे दर्जे से भागे।
लड़कों ने कहा, “क्या हुआ मास्टर साहब ? अभी घण्टा नहीं बजा है।"
वे बोले, “लगता है, मशीन ठीक हो गई। देखें, कैसी चलती है।"
वे दरवाजे तक गए, फिर अचानक वहीं से घूम पड़े। चेहरे पर दर्द-जैसा फैल गया था,
जैसे किसी ने जोर से चुटकी काटी हो। वे बोले, “किताब में पढ़ लेना। आपेक्षिक
घनत्व का अध्याय जरूरी है।" उन्होंने लार घूँटी। रुककर कहा, “इम्पार्टेन्ट है।"
कहते ही उनका चेहरा फिर खिल गया।
भक् ! भक् ! भक् ! कर्त्तव्य बाहर के जटिल कर्मक्षेत्र में उनका आह्वान कर रहा
था। लड़कों और किताबों का मोह उन्हें रोक न सका। वे चले गए।
दिन के चार बजे प्रिंसिपल साहब अपने कमरे से बाहर निकले। दुबला-पतला जिस्म,
उसके कुछ अंश खाकी हाफ़ पैंट और कमीज से ढके थे। पुलिस सार्जेन्टोंवाला बेंत
बग़ल में दबा था। पैर में सैंडिल । कुल मिलाकर काफ़ी चुस्त और चालाक दिखते हुए;
और जितने थे, उससे ज्यादा अपने को चुस्त और चालाक समझते हुए।
उनके पीछे-पीछे हमेशा की तरह, कॉलिज का क्लर्क चल रहा था। प्रिंसिपल साहब की
उससे गहरी दोस्ती थी।
वे दोनों मास्टर मोतीराम के दर्जे के पास से निकले। दर्जा अस्तबलनुमा इमारत में
लगा था। दूर ही से दिख गया कि उसमें कोई मास्टर नहीं है। एक लड़का नीचे से जाँघ
तक फटा हुआ पायजामा पहने मास्टर की मेज पर बैठा हुआ रो रहा था। प्रिंसिपल को
पास से गुजरता देख और जोर से रोने लगा। उन्होंने पूछा, “क्या बात है ? मास्टर
साहब कहाँ गए हैं ?"
वह लड़का अब खड़ा होकर रोने लगा। एक दूसरे लड़के ने कहा, “यह मास्टर मोतीराम का
क्लास है।"
फिर प्रिंसिपल को बताने की जरूरत नहीं पड़ी कि मास्टर साहब कहाँ गए। क्लर्क ने
कहा, “सिकण्डहैण्ड मशीन चौबीस घण्टे की निगरानी माँगती है। कितनी बार मास्टर
मोतीराम से कहा कि बेच दो इस आटाचक्की को, पर कुछ समझते ही नहीं हैं। मैं खुद
एक बार डेढ़ हजार रुपया देने को तैयार था।"
प्रिंसिपल साहब ने क्लर्क से कहा, “छोड़ो इस बात को ! उधर के दर्जे से मालवीय
को बुला लाओ।"
क्लर्क ने एक लड़के से कहा, “जाओ, उधर के दर्जे से मालवीय को बुला लाओ।"
थोड़ी देर में एक भला-सा दिखनेवाला नौजवान आता हुआ नजर आया। प्रिंसिपल साहब ने
उसे दूर से देखते ही चिल्लाकर कहा, “भाई मालवीय, यह क्लास भी देख लेना।"
मालवीय नजदीक आकर छप्पर का एक बाँस पकड़कर खड़ा हो गया और बोला, "एक ही पीरियड
में दो क्लास कैसे ले सकूँगा ?"
रोनेवाला लड़का रो रहा था। क्लास के पीछे कुछ लड़के जोर-जोर से हँस रहे थे।
बाकी इन लोगों के पास कुछ इस तरह भीड़ की शक्ल में खड़े हो गए थे जैसे चौराहे
पर ऐक्सिडेंट हो गया हो।
प्रिंसिपल साहब ने आवाज तेज करके कहा, “ज्यादा कानून न छाँटो। जब से तुम खन्ना
के साथ उठने-बैठने लगे हो, तुम्हें हर काम में दिक़्क़त मालूम होती है।"
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