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श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े

अब के बिछुड़े

सुदर्शन प्रियदर्शिनी

प्रकाशक : नमन प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 9428
आईएसबीएन :9788181295408

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पत्र - 9


राज मेरे...।

एक दिन तुम मेरे घर आये थे...याद है न...। तुम मेरे सामने बैठकर अपनी कुछ कविताओं को मुझे समझाने का प्रयास कर रहे थे...बार-बार शब्द खो जाते थे और कविता को प्रेषणीयता-सिर्फ तुम्हारी आँखों में तिरती रह जाती थी-जिसे तुम्हे भाषा देनी होती थी। यह कहने के लिये या विश्वास दिलाने के लिये में बीच-बीच में, तुम्हारे चेहरे की चमक से चमकृत हो-स्वयं भी वैसी ही समझ का नाटक करती थी...। जब कभी मेरा चेहरा नासमझी की उदासीनता में लटक जाता तो तुम कह उठते-काश! मैं आपको अपनी भाषा समझा सकता...मैं भी तब केवल काश! कह कर मन की हूक को दबा लेती...।

तुम अपनी कविता में अपनी प्रेयसी की आराधना करते-कभी उसे बादलों में...तो कभी आकाश तो कभी चाँद की किरणों में ढूँढते...उसमें अपने जीवन की आकांक्षायें सपनों को बाँध कर कही दूर आकाश में उड़ते। तुम जिस टूटी-फूटी अंग्रेजी में मुझे समझाते-मैं किसी भी तरह न समझ पाती। लेकिन तुम चाहते थे कि मैं उनका अपनी भाषा में अनुवाद कर दूँ-ताकि तुम उन्हें अपनी प्रेमिका तक पहुँचा सको। तब मैं उन्हें अपने ढंग से अनुवादित करने का प्रयास करती। तुम खुश हो जाते...और समझने पर कह उठते ये मेरी कविता के भाव उतने नहीं, जितनी यह आप की अपनी कविता बन पड़ी है...। मैं अपनी लज्जा की लाली को छिपा नहीं पाती और अपने-आप में अपनी लज्जा से सिकुड़ती जाती।

तुम कहाँ जानते थे कि तुम ने मुझे स्वयं ही तो कवि बना दिया है।

तुम कहते-इस पर आप का कापीराइट है...आप इन्हें छपवाइये न। सच राज। तुम्हारी यही सरलता ही तो मुझे बाँधती रही है। कितने मासूम और कितने महान हो तुम। कितने सुन्दर और मनोभावी। मेरे मन में तुम्हारी तस्वीर कहीं और ऊँची दीवार पर टंग जाती है।

बहुत ऊँचे भी मत उठ जाना...कि तुम्हारी कल्पना ही न कर सकूँ...! इतना देवत्व भी ठीक नहीं मानव ही बने रहो हाड़-माँस के जिसे कभी छुआ जा सके-जिसे कल्पना से परे सत्य का बाना पहनाया जा सके। या उस तक पहुँचा जा सके।


कल्पना की उड़ान के लिये भी एक जमीन चाहिये न प्राण! मैं वही चाहती हूँ कि तुम केवल मेरे लिये वायवी कल्पना बने रहो पर ऐसी कल्पना जिसे मैं किसी आधार पर खड़ा कर सकूँ और उसे अपलक निहार सकूँ...।

इतना अधिकार तो दोगे न मुझे। न जाने कैसे माँग रही हूँ यह अधिकार तुम से जबकि तुम जानते भी नहीं कि कौन सी बेल ने तुम्हें अपना आकाश बना लिया है और वह तुम्हारी ओर एड़िया  उठाकर उड़ रही है। पहचान पाओगे क्या कभी...।

- एक अनाम अनुभव


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