श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 8
मेरे आकाश
एक दिन मैंने अपने नये मोह की बात अपने अरुण से कही। अरुण जानते हो न। मेरे पति का नाम है...।
तुम मिल भी तो चुके हो-वह भी तुम्हारी प्रशंसा करते हैं। तुम्हें एक अच्छा एवं सुष्ठु चरित्र मानते हैं...।
अरुण जरा भौतिकवादी है...। वह शरीर से अलग प्यार की कल्पना नहीं कर सकता है। वह इस बात को नहीं समझ सकता कि कोई उम्र भर बिन छुये किसी को चाह सकता हे। किसी के लिये प्रेम एक प्राण-शक्ति बन कर उम्रभर उसे प्रेरणा देता रह सकता है, यह उसके मानसिक चोखटे से बाहर की चीज है। उसके लिये शरीर एक अनिवार्य शर्त है। शरीर भी केवल स्पर्श तक नहीं-पूरे भोग तक शामिल है। वह मानता है कि वह जब कभी किसी लड़की से अभिभूत होता है-उसे केवल शारीरिक रूप में ही देखता है, उसके साथ पार नहीं भोग की बात सोचता है। मैं इस विषय में उस की सोच नहीं बदल सकती। इसलिये मेरी आँखों में उठे हुये तुम्हारे मोह के बादल उसे छू नहीं सकते। क्योंकि वह जानता है, नारी शरीर का समर्पण बार-बार नहीं करती...। मन भी तो बार-बार नहीं हारती स्त्री! लेकिन प्राण क्या वह सौंन्दर्य से अभिभूत नहीं हो सकती! क्या उपवन में एक ही बसंत में सारे फूल-खिल कर फिर मुरझा जाते है! क्या गुलाब मुरझा कर फिर नहीं खिलता हर साल! नर्गिस भी तो बार-बार खिलती है। मेरी आँखों में भी अगर मानस का हंस एक बार फिर खिला है तो क्या। मैं अपने इस कोमल अंश को उससे छिपाये ही रखना चाहती हूँ...। मैं जानती हूँ प्यार की इस उच्चाई तक वह पहुँच ही नहीं सकता।
तुम्हें तो मेरा मोह-बनने में कोई आपत्ति नहीं है न राज...। लो! आज के बाद तुम्हें भी नहीं बताऊँगी प्रण रहा...। स्पर्श और प्रेम के बीच की दूरी ही प्रेम है! देह के समक्ष हम सब हारे हैं और हारते रहते है। हारना कलंकित होना नहीं है, वह भाग्य और पुरुषार्थ की परीक्षा है। वह सत्यम् और सुन्दरम् का दूसरा रूप है। सच्ची मानवता है। उस ईश्वर का साक्षात स्वरूप है जो हर आत्मा के अंदर निहित है, बस उसे पहचानने या देखने भर की बात है। वह दूरी हम से हमेशा बनी रहती है या हम बनाये रखते है और चाबुक मार-मार कर अपने-आप को उस शाश्वत सौंन्दर्य से, सुष्ठा से, सत्य से आँख फेरे-जिंदगी भर बाहरी श्लाघायों में घिरे रहते हैं। बाहरी दिखावों में जकड़े रहते है। हम सब न जाने किन-किन मुखौटो में अपने चेहरे छिपाये हैं। मालूम नहीं हम कितने वह है जो बाहर से दिखते हैं।
हमारा वास्तविक स्वरूप तो कई बार हम स्वयं नहीं देख पाते। अपने हृदय की छोटी-सी अंजुरी में हम न जाने कितने जंगल संजोकर रख छोड़ते है और गाहे-बगाहे उन्हीं में भटकते रहते है। वे मुखौटे धीरे-धीरे हमारा व्यक्तित्व बन जाते है। हम स्वयं उनके धोखे में लिपट जाते है और वैसे ही आचरण करने लगते है और अपनी वास्तविकता को खोकर-एक कठपुतली बनकर-अपनी ही धुन पर नाचते रहते है। क्या है यह विडम्बना! यह नीति! क्या कोई हमें समझायेगा कभी-कोई-कि परदे हटा कर जीयो-। शायद उम्र भर ऐसा मसीहा न मिले या अंदर बैठो मसीहा जाग जाय...। और क्या कहूँ...दिग्भ्रमित हूँ-
- एक भ्रमित भावना
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