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श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े

अब के बिछुड़े

सुदर्शन प्रियदर्शिनी

प्रकाशक : नमन प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 9428
आईएसबीएन :9788181295408

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पत्र - 10


मेरे तुम!
फिर एक बार तुम आए तब भी तुम्हारे हाथ में कुछ कविताएँ थी। तुम मुझे उनका सार समझाना चाहते थे। मेरे सामने तुम आधुनिक लड़कियों के बारे में हुये अपने मोह भंग की चर्चा कर रहे थे। तुम कह रहे थे कि जिस भारतीय लड़की की तस्वीर तुम अपने मन में बना कर लाये थे जिस सौन्दर्य की अधिष्ठात्री को, उस के अन्यतम गुणों के साथ तुम अपने मन में अधिष्ठित किये थे वह कल्पना छिन्न-विछिन्न हो गई है। आज की लड़की बहुत आगे निकल चुकी है।

तुमने उस दिन बड़े दुःखी स्वर में अपनी उषा के बारे में बताया-वह केवल तुम्हारी नहीं थी। उस का मिलना जुलना औरों के साथ भी उतना ही था, जिस तरह तुम्हारे साथ। तुम उसके इस स्वतंत्र एवं बेलाग व्यवहार को पचा नहीं पा रहे थे...। तुम्हें और लोगों ने उसके बारे में यह संकेत किये थे लेकिन तुम तो अभिभूत थे भारतीय लड़की से जो कभी हीर थी, तो कभी सिंध की सखि...। तुम्हारी आँखों में यहाँ की हर लड़की की शीरी थी। लेकिन तुम्हारा वह भ्रम टूट गया था और  अविश्वास की किरचे-तुम्हारे सारे प्राण-पण को लहु-लूहान थी...। तुम समझाने का प्रयास कर रहे थे कि कैसे सीता और सावित्री का देश एक दम बदल गया है और। इस देश को लड़की के तेवर टेढ़े-मेढ़े होकर तिरछे देख रहे है दिग्भ्रमित से...।

मैं दुःखी थी कि तुम्हें दुःखाने वाली कोई मुझ जैसी नारी है। तुम्हारे व्यक्तित्व के विश्वास को छिन्न-भिन्न एक नारी ने किया है-जिसने परम्पराओं के नीचे से अपना पाँव खींच कर-हवा में उड़ना सीख लिया है। यह मेरे लिये अपमान की बात थी। तुम्हारे प्रेम की गहराई को किसी ने खिल्ली में उड़ा दिया था। तुम्हारी टूटन-तुम्हारी तटस्थता और वीरानगी उभर-उभर कर कविता में उठती थी। मैं नारी की पैरवी नहीं करूँगी पर उसे भी युग ने सिखा दिया है-कि सीता और सावित्री बनकर आजतक उसे पुरूष का अपमान और उपेक्षा ही मिली है-उसने अब तक सहा ही सहा है-अब और वह नहीं सहेगी।

पुरुष का अपदस्थ हो जाना आज अच्छा नहीं लगता तो ज्यादा बुरा भी नहीं लगता। अतिश्योक्ति अति वर्जयते, सदियों से पीढ़ियाँ यही दुहराती रही है। यहाँ तक कि घरा में मर्दानी औलाद को सीढ़ी पर चढ़ाकर आरती उतारना-माँ-बहिनों का कर्त्तत्य बन गया था। पुरुष के इस रूप में परम्परागत रूप को न टोक, केवल उसे सहना भी शायद स्त्री का दोष ही बन गया है। पर घट का सुख-सहेज कर रखना भी तो केवल स्त्री के हिस्से ही आता रहा है न प्राण।

बुरा न मानना...पर मालूम नहीं-यह सब कैसे आज लावे सा बह गया है। भावना एक तरफ और सत्य का पहलू दूसरी तरफ...। बहुत सहा है, शायद और न सहेगी। मानते हो न...।

- एक अनन्या...।

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