श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 7
मेरे दीप
जब भी तुम्हे देख लेती हूँ मन-ही-मन-न जाने क्या-क्या लिख डालती हूँ। तुम मेरे लिये मेरी प्रेरणा बन गये हो। तुम मेरे लिये-मेरी भावनाओं को उद्रेक करने वाली शक्ति बन गए हो-तुम ने मुझे कवि बना दिया है हृदयेश। शायद कवियो की सृष्टि ऐसे ही होती है। तुम्हारे स्वपनिल से उनीदे नयन मुझ पर न जाने क्या जादू कर देते है। मैं कभी नहीं सोचती कि तुम मेरे जीवन में आयो। मेरे निकट बैठो या मैं तुम्हें भावानात्मक रूप से कभी अपने निकट देखू...लेकिन एक खिचाव है, एक आकर्षण है तुम्हारे अभिभूत कर देने वाले सौंन्दर्य में कि मैं अवश हो जाती हूँ। न जाने कौन-सी शक्ति मुझे एक बहाव में बहाकर ले जाती है।
जीवन में पहली बार मेरी लेखनी से कुछ शब्द स्फुट-रूप में आप ही आप निसृत होने लगे है। न जाने किस की अर्चना के लिये वे शब्द होते हैं जिन में देवता को चढ़ाये गए फूलों-सी सुगंध होती है। सच ही आज स्पष्ट हो गया कि कोई कलाकार क्यों बनता है। कैसे बनता है! संसार के वायुमण्डल में इतने दर्द भरे और प्रेम भरे गीत क्यों और कैसे गूँजते रहते है। मेरे अन्दर भी संगीत की एक झरझराती नदी बहने लगी है। मेरे अन्तर की ग्रुहघाटियाँ में निझर्र की मधुर कल-कल निनादित होने लगी है-कैसे कहूँ-तुम में मोहाविष्ट होती जा रही हूँ-हर पल-हर क्षण...। क्या में अपना आपा खो रही हूँ...नहीं जानती। मैं अपने आप में हूँ कहाँ जो कुछ खोऊँगी-पर अपने-आप को खोना ही साधना है। अगर इस साधना से परम-सुख की प्राप्ति होती है। अपने-आप में एक देवी-आनंद मिलता है तो अवश्य इस पथ पर चलना मंगलकारी है। क्या साधक की यही पहली सीढ़ी है-किसे पूछूँ और किसे बतलाऊँ...।
-एक अमूक भावना
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