श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 6
मेरी कल्पना...तुम।
आज चार-दिन और चार रातें बीत गई जैसे चार युग बीत गए...जैसे एक पूरा महाकाल आकर लौट आया। उदास ऋतु अपनी उदासी से मेरा मन-प्राण भर रही है। पतझड़! जानते हो न। वही जो शरद मैं सबकुछ झड़ने के बाद आता हैं। ठूठ, निर्राह, बेरंग और उजड़ा हुआ। प्रकृति जैसे नंगी हो जाती है...उस पर ताम-झाम जैसे क्षण-भंगुरता की तरह ओढ़ा हुआ था। पर इस क्षण भंगुरता मैं भी कितनी निरन्तरता है- शाश्वत-पन है...यही सत्य भी है और शिव-सुंदरम् भी। यही सारी सृष्टि का सनातन सत्य है। कभी-कभी बहुत अधूरा लगता है...सोचती हूँ काश! तुम मेरी भाषा समझ सकते-या कहीं मेरी आँखों की ही भाषा तुम ठीक से ग्रहण कर सकते-तो मैं कभी तुम से बदले हुये मौसम की बातकर सकती-अपने विचार बता सकती-कि इस दुनिया में मुझे कितना कुछ उल्टा-सीधा लगता है। इस दुनिया की हर चूल ढीली हुई पड़ी है। हर चूल में कहीं दीमक लग चुका है। यह दीमक बीच में संबंधों से उठकर बाहरी क्षेत्रों में और भी अधिक गहरा गया है। सौहार्द, स्नेह, प्यार का अस्तित्व ही नगण्य है। काश! लोग समझ सकते कि प्यार से बड़ी चीज दुनिया में नहीं है। जब तक कोई प्यार नहीं करता, तब तक वह दुनिया को नहीं समझ सकता। प्यार करके आदमी दुनिया की छोटी बातों से कितना ऊपर उठ जाता है। तब व्यक्ति में न कोई इर्षा रहती है, न द्वेष, न मोह, न स्वार्थ। सारी दुनिया न जाने किस आपा-धापी में लगी हुई है। कोई धर्म, तो कोई अर्थ, तो कोई भाषा का लेकर लट्ठ लिये फिरता है। सबने अपने-अपने चमड़े के सिक्के चला रखे हैं और आस-पास ऊँची-ऊँची दीवारें चुन ली है कि एक का दूसरे तक पहुँचना दूभर हो गया है। मनुष्य-मनुष्य के बीच चुनी हुई ये दीवारें-कितना कुछ अनकहा छोड़ जाती है। क्या सब की एक भाषा नहीं हो सकती। क्या सब का एक धर्म नहीं हो सकता। क्या सब का एक ईश्वर नहीं हो सकता। क्यों हम अलग-अलग रास्तों से उस तक पहुँचना चाहते है। क्या एक ही राह से उस तक नहीं पहुँचा जा सकता। यों भी ईश्वर को हम नाम चाहे कितने दे दे-लेकिन रहेगा वह एक ही-ओउम्- औंकार, अल्ला। यह सत्य कैसे झुठलाया जा सकता है कि वह परम-शक्ति स्वरूप एक ही है और हम सब भी माटी के पुतले एक ही रहेंगें-फिर भी न जाने हम किन भूल-भूल्लैया में पड़े अंधकार में रंग रहे है-यह सब मेरी समझ से बाहर है-राज...।
आज चार दिन हो गए तुम्हें देखे-मन भर-भर-आता है हृदयेश। जी चाहता है ये सारे समाज, अर्थ, धर्म और स्वार्थ की दीवारें तोड़कर मैं अपने बंसत को आँखों में भर लूँ। चार-दिन से बीमार पड़ी हूँ-रोगी होना- संसार की सब से भयंकर दास्ता है-विशेषत एक औरत के लिये। जिन कामों को वह चुटकी बजाते कर डालती है, उन्हें झोंक-झोंक कर करवाना या अशक्त तन से करना-कितना जानलेवा हो सकता है। बहुत बार पढ़ा है कि शारीरिक कष्ट से मानसिक तनाव ज्यादा जानलेवा होता है लेकिन नहीं-मानसिक तनाव से दूसरे का दास नहीं होना पड़ता-आप अपने आप मैं अपने से लड़ सकते हो। अपनी उतार-पछाड़ कर सकतें हो किंतु शारीरिक क्लेश में दूसरों के हाथों को देखना पड़ता है। यही सब से बड़ी यातना है। जिनके लिये तुम्हारे हाथ-पांव, शरीर दिन-रात चक्कर-घिन्नी से चलते रहे-जिन्हे सुख पहुँचाने के लिये तुम्हारी सारी ज्ञानेन्द्रियाँ सारा शरीर लगा रहे, उस शरीर के अस्वस्थ और अशक्त होने पर कोई एक प्याली चाय का सुख न दे सके। नारी होने की कितनी बड़ी विडम्बना है- प्राण-तुम पुष्प होकर नहीं समझोगे। पराधीन सपनेहु सुख नाहि।
तुम्हारी आँखों से लगता है तुम्हें यह हमारा ही अपराध लगता है। हमने घर के, वातावरण को, पुष्प को और शायद सारे समाज को ही ऐसा पराधीन बना दिया है-शायद ठीक कहते हो तुम-हमने बने हुये चौखटों पर ही अपनी नैप्या टिका दी-उसके पालों को उसके चप्पूओं को ठीक दिशा नहीं दी। हम एक भेड़ चाल बनकर रह गये। या तो उस चाल में चलो या चरवाहों की सेटियाँ और दुल्लतियाँ खायो। हमने भेड़चाल का सरल-मार्ग अपना लिया। लेकिन अब-हमे चेत जाना चाहिए।
तुम अशरशः सत्य कह रहे हो। हमें यह करना ही होगा...।
पता नहीं किन-किन उधेड़-बुनो में उलझ जाती हूँ-तुम्हें लेकर। जैसे तुम मेरी धुरी बन गये हो और मैं उसके आस-पास लिपटी धागों का जाल-मात्र...। क्या मैं कह सकती हूँ तुम्हे...।
बस प्यार में-
एक विस्मृत-मुस्कान-
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