श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 25
हृदयेश!
बहुत दिनों से तुम नहीं आए। मेरी अजुरियों में भरी मेरी दुआएँ कह रही है कि तुम्हें कोई दुःख न पहुँचे। तुम्हें कभी कोई पीड़ा न सताए। क्या कारण है कि ईरान की भूमि पर गिरा एक शरीर भी मुझे दर्द दे जाता है। उन खबरों को मैं रोज ऐसे पढ़ती हूँ जेसे मेरे सभी नाते-रिश्ते वहीं जाकर बस गए हो। जैसे एक-एक बम मारी जहाज मेरी छत से होकर गुजरता हैं। एक-एक बच्चे की चीख मेरी छाती में धँसती चली जाती है। एक-एक पल रेडियो पर खबरें सुनती रहती हूँ और सोचती रहती हूँ...फोजों को लड़ाने वाले ये राजनितिज्ञ स्वयं तो वायु-संचालित घरों में आराम से बैठे अपनी जिंदगी के हर्ष लूट रहे है-बस टेढ़ी मृकुटी से लाशें गिनते होंगे कि किस के कितने मरे हैं। क्या कभी वे सोचते होंगे कि एक व्यक्ति के मरने के पीछे कितने-कितने अनकहे इतिहास होते है-। दो चूड़ियाँ-वाले हाथ होते है-कई नन्नी-नन्नी अंगुलियाँ की पूँजी-भरी अजुरियाँ होती है-जिनमें हजारों आशायों को लिये वे नन्नी मासूम-जाने अपने-अपने अब्बा की प्रतिक्षा करती रहती है। वे ममता भरा आँचल होता है जो दरगाहे मस्जिद पर पल्लू फैला-फैला कर अपने बेटे के जीवन की फरियाद करती हैं। पिता की वे उच्चाईयों से भरी आशाएँ होती है जो बेटे को पौरुषता में अपना सब्र खोजती हैं-लेकिन इन कहानियों को कौन-कोई कभी भाषा देता है। वह तो बाद में चँद-चाँदी के टुकड़ों और जल-जल कर जीने की सजा भुगतने के लिये-कुछ राहतो से खरीद लिये जाते है।
कौन-कब सोचेगा-उन बचे हुये कब्र के टुकड़ो को-जो बाद में उम्र भर के लिये-एक अनकही-मौत से बदतर दाह में जीते-नहीं मरते है हर दिन, हर पल...और खुलकर सांस भी नहीं ले सकते...।
-मन भर आया है-और क्या कहूँ...
एक अनकहा दर्द
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