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श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े

अब के बिछुड़े

सुदर्शन प्रियदर्शिनी

प्रकाशक : नमन प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 9428
आईएसबीएन :9788181295408

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पत्र - 24

ओ मेरे अमूर्त बिंब,
देख रही हूँ ईरान और इराक का युद्ध जोरो पर है। बड़ी-बड़ी सनसनी खोज खबर-अखबार में छपती है। जिन्होंने जो भी अत्याचार किया या कर रहे हैं मुझे तो लगता है वे मनुष्य ही नहीं है। मनुष्य होकर-मनुष्य पर इतनी नृशंसता। क्या हो गया है मानवता को...क्या हो गया है हमारी सभ्य दुनिया को। अपनी सत्ता, अपनी भौगोलिक लकीरे इधर से उधर करने में मनुष्य लगा हुआ है। इस लाघव में वह दूसरे का रक्त बहाने में भी भयभीत नहीं होता। एक जीवन मिलता है, उसे भी हम सत्ता, धर्म और व्यक्तिगत स्वार्थों पर बलि-चढ़ाने में तुले हुए हैं। प्रेम के लिये जो जिंदगी छोटी पड़ जाती है, वही हम घृणा-द्वेष और धार्मिक-मतभेदों की मार-काट में हवन कर रहे है। कब समझ में आयेगा कि जीवन-दान दिया जाता है किसी का जीवन लिया नहीं जाता। यों भी हम किसी के जीवन के ठेकेदार नहीं हैं-जो ऊपर वाले के दिये हुये इस अनमोल-जीवन को अपनी इच्छा से पैरों तले रौंद दे। किस का कौन-सा धर्म है इससे क्या आता-जाता है। कौन-सा धर्म है जो दूसरों की हत्या का पाठ पढ़ाता है। गीता-रामायण, कुरान और बाइबल कौन-सा धर्म-ग्रंथ है जिसमें हिंसा का प्रतिपादन किया गया हो। क्या सभी धर्मों का मूलमंत्र एक ही नहीं है-प्रेम...मानवता...। क्या इसी एक शब्द में सारे मजहब नहीं समा सकते। प्राण! मेरा विचार है जो सचमुच इस शब्द के अर्थ समझता है, इस की उद्दाम एवं महान गहनता तक उतरता है, उसे किसी धर्म की बेड़ियों की आवश्यकता नहीं। ये शब्द श्रद्धा, नमन, सौहार्द और स्नेह सभी की कुँजी है। क्यों न। हम सब कुछ त्याग कर केवल इन दो शब्दों की मीमांसा में लग जाय। कौन-सी कला, कौन-सी संस्कृति, और कौन-से धर्म का-यह शब्द प्राण-तत्व नहीं है। लेकिन इन राजनैतिक सिरफिरों को कौन समझाए!

प्राण! मेरी और तुम्हारी आदर्शवादी बुलंद मुठियाँ अंधेरे में ही तीर मार कर पस्त हो जाती हैं। इसे समझने के लिये उनके पास वह समझ ही नहीं है। उन स्वार्थियों की दृष्टि में हम सिरफिरे हैं। जिस धरती की रक्षा-हेतु हम तन-मन प्राण अर्जित करने के लिये तत्पर रहते हैं, उस धरती की हम किस से रक्षा करना चाहते है। एक-दूसरे पड़ौसी मनुष्य से ही न! उसी मनुष्य जाति से-जिसे हमने मनुष्य का नाम न देकर जानबूझ कर शत्रु का नाम दे दिया है। धरती की रक्षा ही करनी है तो प्राकृतिक प्रकोपों से करो। महामारी से करो, प्रलय की प्रलंयकारी-लहरों से करो। ग्लोबलवार्मिंग से करो...पर्यावरण को संतुलित करो। धरती के ऋण से उऋण होने की अगर तनिक भी इच्छा है तो उसके बाँझ शरीर को अपनी सर्जन-शक्ति से उर्वरा बनाओ...।

मेरे प्राण! ये मेरे एकांत क्षणों में लिखे प्रलाप या उदगार...तुम तक तो कभी नहीं पहुँचेंगे लेकिन मानसिक रूप से तुम तक पहुँचने के लिये मेरे पास यही सीढ़ी है-जो तुम्हारी ऊँची बुलंद मीनार तक तो न पहुँच पायेगी...फिर भी राह में पड़ी किसी खिड़की के झरोखे से-तुम्हारी छवि-तो देख ही सकेगी न!

- एक अमूर्त छाया

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