लोगों की राय

श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े

अब के बिछुड़े

सुदर्शन प्रियदर्शिनी

प्रकाशक : नमन प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 9428
आईएसबीएन :9788181295408

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

186 पाठक हैं

पत्र - 20


मेरे अतीन्द्रिय,
तुम्हें किस नाम से पुकारूँ...अभी तक मैंने अपनी ओर से तुम्हारा-कोई नाम नहीं रखा। यौ भी एक अतीन्द्रिय, अशरीरी चीज का नाम हो भी क्या सकता है। क्या सौंदर्य, औदार्य और सुख को विशेष क्षण में नामों का जामा पहनाया जा सकता है। इसलिये जब जैसा मन होता है-वैसा ही मैं तुम्हारा नाम गढ़ लेती हूँ...। क्या मेरी आवाज पहुँचती है तुम तक।

जब हम स्थिति से गुजर रहे होते है-तो स्थिति को तटस्था से नहीं आंक सकते...सुख से गुजर रहे होते हैं-पर सुख की प्रतिति का आभास भी नहीं कर पाते। यहीं दुःख के साथ भी होता है...उस स्थिति-विशेष में उन पर अँगुलि रखकर-उनको महसूस नहीं कर सकते। जब एक बार वे स्थितियाँ बीत जाती है तो यकायक लगता है कि अरे! हम तो इतने दुःख से गुजर रहे थे...और सुख-सुख के तो साधारण क्षण भी अतीत हो जाने पर परम-सुख हो जाते हैं...इसीलिये बीत जाने पर ही सुख की प्रतीति हो पाती है। उसी की गूँज जब विंड-चाइम्स-सी अंदर की परतों से टकराती और मधुर-ध्वनि सी बजती है-तभी वह सुख का गुबार बन कर हमे अपने-आप में लहराने के लिये छोड़ देती है-तब हम उन क्षणों को बार-बार अपनी मिजराव से बजाने लगते है।

आज ऐसे ही कुछ क्षण-कितने दूर लग रहे है जैसे मुझ से कोसो दूर चलकर विलिन हो गये हो...। आज यही अनुभूति मुझे हो रही है।

याद है-जब विवाह के पूर्व-शहनाज-तुम्हारी बात नहीं मान रही थी! वह कहती थी कैसी भी  स्थितियाँ हो-ईरान और ईराक के युद्ध की-वह विवाह से पूर्व ऐसा कुछ नहीं करेगी-जो धर्म और नैतिकता के विरूद्ध हो...।

विवाह भी वह पूरे रीति-रिवाजों के बीच अपने घर में ही करेगी। मुझे उस की कल्पना बड़ी सुंदर लगती है। इस कोमल-कल्पनाओं को हर लड़की उम्र-की पहली सीढ़ी पाँव रखते ही मन में पालने लगती है। तुम बहुत उदास थे, बहुत उद्विग्न भी। इस विषय में तुम मन ही मन आँखों से कहते हुये-मेरी ओर देखते थे-पर में केवल तुम्हें-आँख भर देख सकती थी-कुछ कह नहीं सकती थी। कैसी दृष्टि होती थी वह तुम्हारी एक विनम्र प्रार्थना लिये हुये...और तभी तुम किसी बात को लेकर हँस पड़ते थे और मैं तुम्हारी निश्छल हँसी से विभोर हो उठती है।

तुम्हारे जाने के बाद-मेरे लिये वे क्षण अमूल्य हो जाते थे और एक बड़े सुख की अनुभूति देकर दुलारते रहते। मेरे खाली कोनों में, वे क्षण दीप-बाँति की तरह-कई दिन तक उजाला करते प्रदीप्त रहते थे।

उन्ही दिनों मालूम नहीं क्यों बार-बार लगता कि मैं ही शहनाज के हाथों पर मेहंदी लगा रही हूँ। उसके चेहरे को एक-एक रोये को कूंची से संवार रही हूँ। कभी-कभी शहनाज की जगह, वह मेरा चेहरा क्या हो जाता था प्राण! मैं उसके हाथों में मेहंदी लगाती और तुम्हारी आँखों में देखती। मैं उस के बदन को संवारती तो तुम्हारी स्मिति उस में क्यों फूट पड़ती। तुम्हारी दबी-दबी-सी गंभीर मुस्कान शहनाज के मन-प्राण पर बसंत का बौर खिला देती थी और मेरी गोद में उसके फूल झर-झर कर टपकते...।

मैंने सचमुच ही शहनाज को एक चुनरी-जो नख-शिख सितारों से जुड़ी थी-भेट की थी। अपने हाथों में उस में कुछ अधिक सितारे टाँके थे। कल्पना की थी कि वह चुनरी पहन कर-एक दिन शहनाज अपनी उम्र की देहरी लाँघेगी। पर उस द्वार पर दस्तक की थाप मेरे कानों में कैसे पहुँची होगी...मैं उस थाप के करूण-स्वरों को कैसे सुन सकी हूंगी-राज! जो आज भी कल्पना में काल्पनिक संगीत बनकर-मेरे कानों में-स्रोत-वादन की तरह गूँज कर मेरे सांझ-सवेरे सँवारती रही होगी। वह अनुभूति मुझे पुलकित ही अधिक करती है।

फिर भी न जाने क्यों-मैं स्वंय ही स्वयं को समझ नहीं पाती! मैं आज कही हूँ-और तुम्हारे निकट होकर क्या चाहती हूँ। क्यों मुझे शहनाज की पहुँच पर-पहरेदारी नहीं करनी चाहिये थी क्या। क्यों मुझे उस की तुम तक पहुँच में ही अपनी पूर्णता दिखाई देती है-मैं कुछ समझ नहीं पाती।

क्या मैं दुनियाई बंधनों से ऊपर उठ गई हूँ-या मुझमें एक वीरानी-सी वीतरागता आ गई है-या मेरी प्राकृतिक इच्छाये मर गई है। क्या कोई कर्त्तव्य बोध-आचार-विचार की उपनिषदी संहिता मुझ पर सवार हो गई है। मैं क्या सोच रही हूँ क्या कर रही हूँ-कहाँ पहुँच रही हूँ-कहाँ पहुँचना चाहती हूँ...। मुझ में से मेरे में खो गए है प्राण...।
मैं दिग्भ्रमित हूँ...फिर भी आज कह देती हूँ वही अनकहे शब्द...वही अपूर्व सोच-समझ से परे के शब्द-जो कभी-किसी ने ससि-पुन्नु ने-हीर-रांझा ने-शीरी फरहाद-ने भी शायद मुँह से उच्चारित नहीं किये होगे। पर आज लगता है कहीं सीमा-पार करके-काँटों की जंजीर को लाँघकर-ये शब्द-जिन्हे-तुम जो भी नाम देना चाहो-किसी भी खाते में रखना चाहो-स्वीकार करो या धिक्कार करो पर मैं नहीं जानती-आज वे शब्द मेरे अंदर के गहन-अंतःकरण से बाहर निकलने के लिये उतावले हो रहे-कि- मैं-तुम से-तुम से प्यार करती हूँ...। पर-किसे कहूँ-ये शब्द...ये तो बताओं तुम कहाँ हो...आजकल प्राण...।

प्रतीक्षारत-तुम्हारी

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book