श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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पत्र - 21
प्राण...।
एक दिन तुम आये थे और बड़े उन्मन थे। तुम्हारे मुँह से शब्द नहीं निकलते थे। यौं भी भाषा हमारे बीच एक समस्या तो है ही। तुम्हारी टूटी-फूटी अंग्रेजी मुझ-तक आते-आते अपनी संप्रेषणीयता खो बैठती है और मेरी अंग्रेजी तुम्हारे चेहरे की भाषा का उत्तर नहीं बन पाती थी। तुम्हारे पिता की चिट्ठी आई थी कि ईरान का युद्ध बड़ा जोर पकड़ रहा है-और वे तुम्हें पैसा-इसलिये-असमय-समय
नहीं भेजना चाहते कि सरकार को बताना चाहते है कि तुम्हारा उनके साथ कोई संबंध नहीं है। मैं चौकी थी-लेकिन तुम्हारे चेहरे की उद्विग्नता ने मेरी चौंक को वही रोक लिया था। सरकार ने ईरान के एक-एक व्यक्ति को आदेश दिया था कि अपने जवान बेटों को मिलटरी, ट्रेनिंग दिलवाने के लिये भर्ती करवायें। यहाँ तक जो लड़के कहीं इधर-उधर शिक्षा प्राप्त करने के लिये गए हुये थे-उन्हें भी वापस बुलाने की योजना बन रही थी। उस पर तुम तो पायलेट रह चुके हो...इसलिये तुम्हारे पिता पर तो कभी भी दबाव डाला जा सकता है। उन्हीं अफवाहों के बीच-उन्होंने यह पत्र लिखा था...कि अब वह तुम्हारी पढ़ाई का खर्चा या तो नहीं भेजेंगे-या किसी अज्ञात जरिये से भेजेंगे...। तुम अपने लिये चिन्तित नहीं थे-तुम चिन्तित थे अपने माता-पिता के लिये...कि उन्हें अनुचित-दबाव के कारण कुछ भी भोगना पड़ सकता है। शहनाज की माँ की भी चिट्ठी आई थी कि वही रहो। वापिस देश मत लौटो। पर शहनाज अपनी माँ के पास लौटना चाहती थी। उसके लौटने का अर्थ था-उस पर भी दबाव डाला जा सकता था। इन सब बादलों ने मिलकर तुम्हारे चेहरे की सारी ज्योति छीन ली थी...उस दिन। तुम्हारा द्वंद मैं समझाती थी। तुम लौटना भी चाहते थे...क्योंकि तुम्हारी धरती के तुम्हारी जरूरत थी...लेकिन माँ-पिता-शहनाज सब तुम्हे लौटना नहीं देना चाहते थे।
मैं क्या करूँ-तुमने बड़े ही निरीह भाव से मेरी ओर देखा था...।
मैं तुम्हें देख रही थी...एक बार हमारी आँखों में कोई काश्मीर उग आया था...शालीमार और निशांत की दूर तक फैली हुई हरीतिमा को स्वर्गिक आभा आलौकित हो उठी थी। एक स्वर्गीय कानन के फूल-उस दिन तुम्हारी आँखों में
पहली बार देखे थे...। लगा था-भाषा कोई भी हो-एक भाषा होती है-जिसे बिना कहे-बिना जाने-समझे भी पढ़ा और बुझा जा सकता है।
तुम एकाएक सकपका कर खड़े हो गये थे मैं भी उठकर तुम्हारे सामने आ खड़ी हुई थी। एक विस्फारित विभोर एवं उन्मादित-सी आँखों से तुमने देखा जिनमें एक विवशता का भाव था...। मैंने अपना हाथ बढ़ाकर तुम्हारे कंधे पर रख दिया था...।
तुम ने मेरे हाथ को चुपचाप हाथ में लिया था उसमें दबाव नहीं एक आश्वासन था कि कहीं भी कोई भी राह तुम इस सब में से निकाल ही लोगे...।
मैंने उस दिन तुम्हारी आँखों में जीवन से लड़-भिड़ने का साहस देखा था...तुम्हारी दुविधा तुम्हारी शक्ति बनकर बाहर निकलेगी जब तुम उसे कविता में उगल डालोगे...।
इसके साथ ही एक और कृतज्ञता का-सा भाव तुम्हारे चेहरे पर उभरा था। वह भाव जो परस्पर एक गहरी समझ का आभास देता था। हम दोनों के बीच उस दिन पहली बार एक दीवार खड़ी हो गई थी...एक समझ की दीवार पर इस दीवार में हवादार झरोखे थे जिन में से हम एक दूसरे को और अधिक पहचान सकते थे या गहराई से पहचानने लगे थे।
तुम सीढ़िया उतर गये थे और मेरे हाथों में अपने प्रश्न छोड़ गये थे। अपनी दुविधा मुझे सौप गये थे। मैंने बाहर बालकनी में तुम्हें देखने के लिये रैलिंग पर अपने दोनो हाथ टिका दिये थे। इन हाथों में अभी भी तुम्हारे हाथों की आर्द्रता बाकी थी। उस क्षण में जड़ हो गई थी। और चुपचाप देखती रही तुम्हारा जाना और तुम्हारे दुविधा भरे धीरे-धीरे डग भरते कदम...। बहुत कुछ था जो तुम नहीं कह पा रहे थे...पर मैं समझ पा रही थी...। जैसे शहनाज ईराक से है और तुम ईरान से और इस समय वे परस्पर युद्ध के मोर्चे पर है और इधर तुम इन दुरभि संधियों से गुजर रहे हो। कितना बड़ा झंझावत रहा होगा तुम्हारे मन में और शहनाज के मन में। तुम्हारे माता-पिता शायद ऐसा नहीं सोचते किंतु शहनाज के! यह प्रश्न अवश्य तुम्हें उद्वेलित कर रहा होगा। शायद शहनाज से तुम यह सब न कह पा रहे होगे...। इसका उत्तर भी तुम्हें अपने अंदर से ही ढूंढना होगा...। यह लड़ाई सीमाओं की है शायद धर्म भी कहीं अपनी सत्ता बधार रहा हो पर तुम्हें अपने व्यक्ति-व्यक्ति के संबंध के बारे में सोचना है। क्या व्यक्ति इन सीमाओं से ऊपर उठ सकता है। या कभी उठने का प्रयास कर सकता है या उसे भी भीड़ समूह या समाज खा जायेगा। नहीं जानती! तुम्हारे इन सारी परोक्ष दुविधाओं का क्या हल होगा...।
उन्मन हूँ क्या कहूँ...।
- एक उन्मन
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