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श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े

अब के बिछुड़े

सुदर्शन प्रियदर्शिनी

प्रकाशक : नमन प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 9428
आईएसबीएन :9788181295408

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पत्र - 19



ओ मेरे पीयूष।

तुम्हें लेकर या तुम्हारे बारे में सोचकर आज फिर एक उदासी-सी प्राण-पण में भर गई है। व्यक्ति के हर कोने में भराव तो नहीं हो सकता न! कहीं-कोई-न-कोई कोना-किसी तालाब की तलछट-सा वीराना और सूखा भी तो रह सकता है न। तुम्हारी कल्पना से वह सूखा तलछट कभी-कभी लहराने लगता है। सबकुछ होते हुए भी एक अतृप्ति-सी क्यों हैं। इस अतृप्ति या भाषा का स्वरूप क्या है। क्या हम सभी अपने आप में कहीं अधूरे है। कुछ पाकर हम क्षण-भर के लिये तृप्त हो जाते है। क्या साज-सामान, बाहरी तड़क-भड़क आदमी को अंदर से भर सकते है। शायद नही...कहीं-न-कहीं हर कोई अंदर से रोता है...खोखला है...किसी प्यास में प्यासा है।

मेरे प्राण! तुम्हें देखे भी लगता है युग बीत गए...तुम्हारा अभिराम सौन्दर्य, तुम्हारे व्यक्तित्व का औदार्य-आज इतना बड़ा-बड़ा होकर क्यो आँखों में भरने लगा है। क्यों मेरे प्राण-तब का कोई कण तुम्हारे लिये तड़पने लगा है।

मैं जानती हूँ तुम्हें पाकर भी वह तड़पन कम नहीं होगी...केवल एक उन्माद कम हो जायेगा...किंतु फिर भी यह सारी सृष्टि एक उन्माद की ही पूर्ति नहीं है जिसे हम सुख कहकर परिभाषित करते हैं या उसी सुख की अनुभूति की ही खोज नहीं है! सुख की अनुभूति-हमें सुख के बीत जाने के बाद होती है-इसीलिये-उस सुख के अन्वित क्षण की शुरुआत को खोजने-हम फिर चल पड़ते है और अनावरत चलते रहते है। संसार पर एक विहंगम दृष्टि डालो-तो सभी क्या अशून्य काल से उसी एक क्षण की तलाश में नहीं भटक रहे हैं! किस की-क्या भटकन है। किसी के सुख की परिभाषा-एक दूसरे से मेल नहीं खाती-कितनी अव्यक्त है इसकी परिभाषा...।

देखो! मैं ही किस खोज में भटक रही हूँ-मैं किस खोज में हूँ-मेरी खोज की अन्विति क्या हूँ, मैं नहीं जानती। क्या मेरी खोज तुम हो...। नहीं तुम मेरी खोज नहीं हो सकते। यह कोई अन्य-अनवरत खोज है...जिसमें तुम सिर्फ एक पड़ाव हो-जहाँ मैं कभी-कभी विश्राम करके एक राहत के अहसास को अनुभव कर लेती हूँ...। पर क्या तुम्हें पाकर मुझे मेरी ठोह मिल जायेगी। क्या मेरे अंदर की एक अनवरत-रिसती पीड़ा थम जायेगी! मेरी पीड़ा घाव की तरह बहती नहीं अंदर ही अंदर रिसती है, जिसे कोई नहीं देख सकता।

दुनियाई चौखटे में रखकर देखा-जाये तो एक भरे-पूरे व्यक्ति की क्या पीड़ा हो सकती है। यह कैसी अतृप्ति है, यह कैसी अनबुझ प्यास है। वह कैसा सकून है या शाँति का क्षण है जिसे मैं ढूँढती हूँ-अंदर-बाहर-और बाहर-अंदर...।

अपने अंदर झोकती हूँ तो लगता है एक रीता कुँआ है-जो ऊपर तक डूबने-ऊबने को ललायित है-क्या है जो मुझे भर सकता है। मुझे उबार सकता है। मुझे उठा सकता है, मुझे पूरा कर सकता है...क्या है वह!

ओ! मेरे प्राण-आयौ-कल्पना की बाहें फैला दो-मेरा तन-मन थक चुका है। मुझे तुम्हारा अहसास चाहिए-मुझे आराम चाहिए...। हो सकता है कहीं-उस एक क्षण की सृष्टि तुम कर सको-प्राण...।
शेष फिर-

अनन्या-अनाम।

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