श्रंगार - प्रेम >> अब के बिछुड़े अब के बिछुड़ेसुदर्शन प्रियदर्शिनी
|
5 पाठकों को प्रिय 186 पाठक हैं |
पत्र - 18
मेरे तुम!
आज फिर न जाने क्या हो गया है मुझे कि अंदर का लावा-बाहर उबल-उबल पड़ता है। कभी-किसी को मखमली मसनदों पर रोते देखा है तुमने! फूलों की चुभन सही है तुमने। राज! कभी यह दुनिया बाहरी सुख और भीतरी मन की अंतराइयों के सुख के बीच की दूरी की तमीज कर पायेगी! बाहर के सुख-साधन जब जुटने लगते है तो आदमी अंदर से कँगाल हो जाता है। क्या स्वयं कभी वह इस तथ्य को चीन्ह पाता है। बड़े-बड़े महलों में से क्यों खाली-आवाजें लौटकर-कानों से तड़पती हुई टकराती हैं। महलों के द्वार-लौह द्वार क्यों होते है! खिड़कियाँ क्यों नहीं खुली रहती-इसलिये कि बाहर की खुली-साँसों की पुलक-महलों के अंदर बिछे मोटे-मखमली-मसनदों के आर-पार नहीं हो सकती। इसीलिये आप मखमल पर लोटिये-पलोटिये और उस की नरमी से छिदते रहिये। मेरी जान! न जाने क्यों मुझे भी ऐसा ही कुछ लगता है। मेरे महल के अंदर भी बाहर की खुली-प्रकृति और बाहर के उजालों को आने की मनाही है। इन सुखों के बीच मेरी आत्मा-तड़प रही है। बंधन और महल के लौह-द्वार मेरी आंतरिकता से बहुत भारी है। मैं तो अब अपनी भी बांदी नहीं रही। प्राण! मेरी बांदिया ही क्या कर सकती है-मेरे लिये...अधिक-से-अधिक अगर होती भी तो-वह मेरे लिये कुछ और भौतिक सुख के काटे बिछा सकती थी-मुझे ये काँटे रास आते नहीं दिखते-मेरे दोस्त।
इन लौह-द्वारों से सोते-जागते-मेरी चेतना लहुलूहान होकर-टकरा कर लौट आती है और बस...मैं अपनी ही कारागार में बँद हूँ...मेरी अपनी ही जंजीरे मुझे बाँध रही है...। क्या करूँ-कुछ बताओ-
- सदैव प्रतिक्षारत
|